Thursday, 30 August 2018

चक्रवर्ती राजा

कविता:चक्रवर्ती राजा
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 30th Aug 2018.
"कोई है,
और कोई है मानव,
अनघ,अपोषित,
शोणितहीन,
भुरभुरा,
सहज दहनीय
सूखे लक्कड़ जैसा 
जो समिधा बन
यज्ञाहुत हो सके?"
राजा के चक्रवर्ती अभियान
के निमित्त किया जाने वाला
राजसूय यज्ञ
हाथ में ज्वाला लिये
पूछ रहा है ।

-पवन कुमार ।
चित्र साभार-गूगल 
*शब्दार्थ:
अनघ-पवित्र /शोणितहीन-रक्तहीन/सहज दहनीय-आसानी से जलने लायक/समिधा-हवन की लकड़ी /राजसूय यज्ञ-ऐसा यज्ञ जो राजा के विश्व विजय के लिए किया जाता था।

Wednesday, 29 August 2018

सुनो सरकार

विषधर सत्ता चुन रही है एक एक कर रैय्यत,
आज इसकी,कल उसकी उठ रही है मैय्यत ।
चित्र साभार- गूगल 

आजकल अख़बार की सुर्खियों पर दृष्टिपात करते हीं अपने इंसान होने पर ग्लानि होने लगती है।ऐसा लगने लगता है मानों जीने के एवज़ में हम सरकार की तिजौरी में अपनी आज़ादी ,अपनी वैचारिकता को गिरवी रखने के लिए बाध्य किये गए मांस के लोथड़े भर रह गए हैं ।महज़ वो पुतले रह गए हैं जिनके नफ़स की डोर हुक्मरानों के हाथ में है ।
कलम क़फ़स में बंद की जा रही है।अभिव्यक्ति की आज़ादी का सरेआम हनन किया जा रहा है ।
राजनीति का स्तर रसातल में चला गया है।
यह सर्वविदित है कि सरकार ,चाहे वह किसी भी पार्टी की हो,को हक़ और हुक़ूक़ के लिए उठी आवाज़ नहीं भाती और वह उस आवाज़ को दबाने के लिए किसी भी हद तक गिरती रही है।सरकार उन लोगों से निज़ात पाने के लिए मक्कारी भरी सियासी चाल चलती रही है जो सरकार के समक्ष अपनी कलम से चुनौतियां पैदा करते रहे हैं।
सरकार किसी भी पार्टी की हो,मुझे उनसे घिन होने लगी है ।सब एक हीं थाली के चट्टे बट्टे हैं।उन्हें सत्ताच्युत होते हीं ग़रीब-गुरबों की याद आने लगती है और इनके सत्ता पर आसीन होते हीं ये ग़रीब-गुरबे इनके ज़ेहन से ऐसे ग़ायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।बल्कि ये सत्ताधारी ग़रीबों के अस्थि-मेरु पर विराजमान हो अपना क़द बुलंद करते हैं।धिक्कार है राजनीति की इस मानवताहंता परिपाटी पर ।
सुनो सरकार
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 29th Aug 2018.

सुनो सरकार!
क्या सही जुगत लगाई है तुमने
सरकश आवाज़ को घोंटने की,
तुम तो ख़ुद को शाबाशी दे दो;
पर कलम के चारों ओर
ये कैक्टस उगाने से क्या होगा!
ऐसा करो कलम को फांसी दे दो;

ये कलम बड़ी बेहया चीज है,
दमित होकर भी 
जब तक ज़िंदा रहेगी 
सच उगलती रहेगी;
इंसाफ़ अगर उत्तंग पहाड़ पे भी
बैठा है तो क्या!
यह निरन्तर उसकी ओर
चलती रहेगी;

यह करती रहेगी
तुम्हारी करतूतों को फाश,
यह भरती रहेगी
लोगों में उम्मीद का उजास;

इसे रौंद डालो
निरंकुशता के भारी-भरकम
बूटों तले,
बंद कर दो 
हर वो आंखें जिसमें इंसाफ़ का 
ख़्वाब पले;

सुनो सरकार
कोई जिये या मरे,
तुम्हें क्या!
तुम तो 
भूखों की अंतड़ियों पर
अपने सिंहासन के 
पाये पैवस्त कर
जमे रहो;

बाकी दुनिया 
तरक्की की राह पर
अग्रसर हो तो क्या!
तुम तो मुल्क की 
लगाम पकड़े 
पिछड़ेपन की ज़मीं पर
थमे रहो;

कलम ने कुदिनभोगियों
के साथ साज़िश रची है,
भूख़ के ख़िलाफ़ 
बग़ावत करने की,
उन्हें इस हिमाक़त की
सज़ा दो;

ऐसा करो 
इस ढीठ कलम को 
दिन के उजाले में
भीड़ से भरे चौराहे पर
सलीब पर
चढ़ा दो ;

न होगी सत्यवादी कलम,
न होगी स्याही,
न कभी ललकारी जाएगी
तुम्हारी मसीहाई।

-पवन कुमार।

Sunday, 26 August 2018

काश तुम न आते!

मेरी कलम के पांव जो एक दिन में मीलों की मसाफ़त तय किया करते थे,ख़्यालों की देखी-अनदेखी विशाल ज़मीन को लांघा करते थे ,पिछले कुछ दिनों से एक हीं ज़गह पर मुंजमिद हो गए थे।वज़ह,कोई बेहद अज़ीज़,बेहद ख़ास आया हुआ था जिसने मेरे ख़्यालों पर अस्थाई आधिपत्य जमा लिया था ।पर वह हवा के एक ख़ुशगवार झोंके की तरह आया और मुख़्तसर सा साथ बिता चला गया और पीछे छोड़ गया बिछोह की बेचैनी।अब चूंकि वह जा चुका है,मैंने अपने दारू-ए-अलाम कलम को फ़िर से थाम लिया है।पर आज यह कविता मैंने नहीं लिखी,उसने लिखवाई है।
कविता:काश तुम न आते!

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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 24th Aug 2018.

सावन बड़ा नमनाक 
मौसम होता है,
आंसू और बारिश 
एक दूसरे में ऐसे गुथ जाते हैं 
कि उनके बीच का सारा भेद
मिट सा जाता है और
दर्द अनाथ सा रह जाता है,
उसे कोई समझ नहीं पाता
और तुम ऐसे मौसम में
मुझे छोड़कर चले गए हो!

अब जबकि तुम चले गए हो
मैं बारिश से घट भर रखे
उस कजली वर्णी पौधे 
से पूछूंगा कि क्या उसने
कोई सूखा बदरोटी पत्ता 
अपनी कांख में अटका 
रखा है जिसमें गुज़िश्ता लम्हों 
ने तुम्हारा नाम लिख रखा हो;

मैं अपने काई लगे
पिच्छल प्रांगण में
जानबूझ कर फिसलूंगा 
यह देखने के लिए कि
क्या ऐसे फिसलकर
वापस अतीत के उस
सुखमयी धरातल में
गिरा जा सकता है 
जब तुम साथ थे;

मैं अपनी बालकॉनी में खड़ा
बड़ा तन्मय हो बारिश की
झिरझिर सुनूंगा,
क्या पता उसमें 
माज़ी की हमारी 
कोई ख़ुशगप्पीयां छुपी हों;

या शायद मैं बाहर 
खुले में निकल जाऊंगा 
और कर लूंगा ख़ुद को 
पावस की बूंदों से सराबोर,
क्या पता कोई क़तरा 
उस बादल से गिरा हो 
जिसने तुम्हारे गांव में कभी 
पड़ाव डाला था;

तुम्हारे जाने के बाद 
बहुत कुछ पुराना 
बदल सा गया है,
वो नज़ारे जो 
कलतलक मेरे अंदर 
सुकूत जगाया करते थे 
अब मेरे दर्द को
मुखर कर रहे हैं,
मिसालन ज़मीन पर
मेढ़क सी उछलती बूंदें
जो कलतलक मुझे 
धमा-चौकड़ी मचाते
बच्चे की मानिंद लगती थीं,
अब किसी गर्म तवे पर
बदइत्तिफ़ाकन गिरी 
जल-बूंदे सी लगती हैं;

आसमान में उगी 
बिजली की चौंध
जो कलतलक मुझे
सुख के सुनहरे हर्फ़ 
जैसी लगती थी अब 
बहिश्त को जलाती 
आग सी लगती है;

अब रात अनमनी सी ,
अब दिन बेलौस सा 
लगता है ;

इतनी बड़ी कीमत
तुम्हारे आने की !

काश तुम न आते !
-पवन कुमार।
चित्र साभार- गूगल 

Thursday, 16 August 2018

नामर्द


कथा:नामर्द
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                                                      ©®Pawan Kumar Srivastava

हट भूतनी के ,पिछवाड़े में गू नहीं और चला सूअर को दावत देने उस ज़िस्म फरोश औरत ने यह कहते हुए जुल्लू को ऐसी जोर की लात जमाई कि इकहरे बदन का जुल्लू उस झिलंगी सी खाट से सीधे नीचे आ गिरा | ज़ुल्लू ने उस ज़िस्मफरोश औरत की इस बदतमीज़ हरक़त का कोई विरोध नहीं किया और चुपचाप उठकर उस नीम रोशन कमरे के अलगनी में टंगी अपनी पतलून पहनने लगा | जुल्लू विरोध करता भी तो किस मूंह से |पिछले दो घंटे से वह मिन्नतें कर कर के उस जिस्मफरोश औरत से वक़्त ले रहा था पर नतीज़ा क्या निकल रहा था घंटा | वो बाज़ारू औरत थी ,बाज़ार के चलन को समझती थी |जिस दो घंटे को गंवाकर जुल्लू कुछ नहीं कर पाया था ,उतने वक़्त में तो कई ग्राहक कई बार उस औरत के साथ ज़िस्मानी सुख पाने का खेल खेल गए होते और बदले में उसके उन्नत उरोजों की घाटी में पैसे भर गए होते |और इसलिए जब तक जुल्लू उस बोसीदा से कमरे से लगी सीढियां उतर कर नीचे सड़कों पे न आ गया ,उस ज़िस्म फरोश औरत की गालियाँ उसका पीछा करती रही |

जुल्लू के माँ बाप उसके बचपन में हीं एक सड़क हादसे का शिकार हो ,ज़ेरे खाक़ हो गए थे  और जुल्लू के रिश्तेदार के नाम पर बस ज़ुल्लू के चाचा का परिवार बचा था |पर ये चाचा का परिवार पारिवारिक ज़वाबदेहिता निभाने के मामले में जुल्लू के बाप से भी कोसो आगे था तभी तो जुल्लू के जवान होते हीं उन्होंने जुल्लू की शादी की रट लगा दी |दवाब ज़ोरदार था |जुल्लू को शादी के लिए अपनी रजामंदी देनी हीं पड़ी |

जब कोई नौजवान शादी की राह पर अग्रसर होता है तो उसे दो फ़िक़र धर दबोचती है एक तो कमाई की और दूसरी ज़िस्मानी क़ुव्वत की |जुल्लू एक शमशान-भूमि का सुपरवाईजर था |मुख़्तसर हीं सही पर कमाई बंधी हुई थी और इसलिए जुल्लू के लिए कमाई सरदर्दी का सबब नहीं थी |उसे अगर कोई फिकर मारे जा रही थी तो वह यह कि क्या वह अपनी बीबी को ज़िस्मानी सुख दे सकेगा |आदमी भले अन्य क़िस्मों की चिंताओं को अपने अन्दर हीं महदूद रखे पर यह एक चिंता ऐसी है जिसका साझा  हर होने वाला दूल्हा अपने शादीशुदा दोस्तों से करता है और नसीहतें लेता है |जुल्लू ने भी ऐसा किया था और दोस्तों की सलाह पे कामशास्त्र से लेकर कोकशास्त्र तक कई किताबें खंगाल डाली थी |बस एक प्रायोगिक जांच बची रह गयी थी सो उस दिन जी बी रोड के उस बलाखाना का रुख़ कर जुल्लू ने वह आज़माइश भी कर ली | पर बदकिस्मती से जुल्लू उस आज़माइश में नाकाम रहा |
चित्र:साभार गूगल  

एक मर्द अपनी तमाम दौलत गँवा कर भी उतना मायूस नहीं होता जितना कि मर्दानगी गँवा कर |ज़िल्लत की कोई भी बरछी सीने में वो घाव नहीं कर पाती  है जो औरत द्वारा दिया नामर्दी का ख़ताब कर जाता है,चाहे वह औरत रंडी हीं क्यूँ न हो |जुल्लू के ख़ुद  की निगाहों में उसकी इज्ज़त तार तार हो गयी थी साथ हीं यह साबित हो गया था कि वह शादी के नाक़ाबिल है | जुल्लू ने अपनी शादी रुकवाने की भरसक कोशिश भी की पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी | यार अहबाबों में शादी के कार्ड बंट चुके थे | शामियाने ,लाइट ,बाजे गाजे वाले सबको पेशगी दी जा चुकी थी |उसकी शादी रुकवाने की कोशिशें कामयाबी तो हासिल नहीं कर पायी उलटे उसके चाचा को बुरी तरीके से भड़का गयी | देख बे लौंडे मेरी नामख़राबी की तो तेरा बाप नहीं हूँ कि बर्दाश्त कर लूँगा |’कड़क मिजाज़ चाचा का यह हूल जुल्लू को शांत करने के लिए काफी था |और इसलिए उस दिन से शादी के मंडप में बैठने तक जुल्लू शांत रहा |हाँ फेरे लेने के लिए जब उसकी धोती और उसकी पत्नी की साड़ी का छोर आपस में बांधा जा रहा था तो उसका बड़ा जी हुआ कि वह उस गठबंधन को खोल कहीं भाग जाए |दिल्ली इतनी बड़ी है ,चाचा के हैबतनाक नज़रों से दूर वहीँ कहीं भी छुप छुपा के रह लेगा पर जुल्लू की यह सोंच हक़ीकत का जामा पहनने से पहले हीं दम तोड़ गयी|

जुल्लू की पत्नी ,जिसका नाम कोमल था ,सचमुच कोमलांगी थी |गोरा रंग ,मस्त स्याह आँखें ,गदराई ज़िस्म किसी में भी हसरत पैदा कर देते और कोमल को देखकर हसरतों की लहर जुल्लू में भी ख़ूब उठा करती थी पर उस हसरत के लहर के उफनने का फायदा हीं क्या जो साहिल तक पहुँचने से पहले खत्म हो जाए | और इसलिए जुल्लू कसमसा के रह जाता था | शादी के हफ़्ता भर बीतने को आये थे पर जुल्लू ने कोमल को चोर निगाहों से देखने और काम  की दो टूक बातें करने के सिवा कुछ नहीं किया था |कोमल को अपने पति की यह बेरुखी खलती ज़रूर थी पर हया की दहलीज़ में सिमटी कोमल कर भी क्या सकती थी |ऐसा नहीं है कि जुल्लू कोई कवायद नहीं कर रहा था |उसने शादी होने के कुछ दिन पहले से लेकर अब तक मर्दानगी बढाने वाले कई नुस्खे आजमा डाले थे |कई शक्ति वर्धक जड़ी बूटियों में अपनी काफी जमा पूंजी उड़ा डाली थी पर उस रंडी ने जुल्लू के  आत्म -विश्वास की धज्जियाँ इस कदर उड़ा दी थी कि वह तमाम दवा दारू करने के बावजूद अपनी बीबी के पास जाकर अपनी जिस्मानी क़ुव्वत आजमाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था |

‘दवा ज़रूर असर कर गयी होगी ,सत्ते भी तो इसी पलंग तोड़ दवा को खाकर चार चार बच्चों का बाप बना |अब मैं बीबी के साथ सोने के लायक हूँ पर कहीं दवा बेअसर रही हो ! कैसे पता चेलगा ? .....सो कर हीं तो .....नहीं नहीं बीबी के साथ नहीं .....रंडी ...हाँ एक नई रंडी ......वहां सब पता चल जायेगा .....बीबी के सामने अपनी थुक्का-फज़ीहत कराने से अच्छा है कि रंडी की लताड़ खायी  जाय|काफी देर तक इस उधेरबुन में फंसे जुल्लू ने आख़िरकार यह फैसला लिया और अब तक खाए मर्दानगी के दवा के असर की आज़माइश के लिए उसने फिर एक बार रंडीखाने की राह पकड़ ली |

जुल्लू जैसे हीं जी.बी रोड पहुंचा ,गलाज़त से भरी उस संकड़ी सी गली में ग्राहकों को लपक लेने के लिए तैयार बैठे दल्लों ने उसे घेर लिया |काफी चिल्ल-पौं के बीच एक सयाना दल्ला जुल्लू को ले उड़ा |वह जुल्लू को अपने ईमान का हवाला देता ,अपनी रंडियों के खुसिसियत बताता एक कोठे की तरफ हांका जा रहा था और जुल्लू ख्यालों के उथल पुथल से भरे दरिया में उब डूब करता चला जा रहा था | जैसे हीं एक कोठे के जीने की उसने दो चार सीढियां चढ़ी ,पुराने ज़िल्लत का घाव फिर से हरा हो गया |डर के भूत ने उसे फिर से दबोच लिया |जुल्लू पहले तो बुत बना खड़ा रहा फिर उलटे पांव भाग आया |


महरौली की वह सरकारी शमशान भूमि  दिल्ली के तमाम लावारिस लाशों की  इकलौती पनाहगाह थी |यहाँ रात बिरात,किसी भी समय सरकारी नुमाईंदे टूं टूं करते एम्बुलेंस में लावारिस लाशों को लेकर आते थे  और यहाँ के सुपर वाईजर के जिम्मे छोड़कर चले जाते थे |सुपर वाईजर बिजली की चिता में लाश को लिटा कर पल भर में  उसे राख में तब्दील कर दिया करते थे |उस शमशान भूमि में जुल्लू के अलावा एक और सुपरवाईजर काम करता था |काम दिन और रात के पाले में बंटा था |दोनों सुपर वाईजरों के बीच बारी बारी से छह महीने के लिए रात की तैनाती होती रहती थी |रात में काम करना दोनों हीं सुपरवाईजरों को बड़ा खलता था और वे बड़ी बेसब्री से ६ महीने के अपने तकलीफ़देह वक़्त के गुज़र जाने का इंतज़ार किया करते थे |रात की ड्यूटी से उनके कन्नी काटने की वज़ह बड़ी जायज़ थी |दिन में तो उस शमशान भूमि में एक आध आदम ज़ात दिख भी जाता था पर रात में लाश को जलाने में मदद करने वाले बूढ़े जमादार ,झींगुर की आवाज़ और हवा की उदास सनसनाहट के अलावा अगर किसी का साथ मिलता था तो वह थी लाश |बच्चे की लाश ,बूढ़े की लाश ,ट्रक से बुरी तरह कुचली लाश ,ज़हर से नीली पड़ी लाश,पोस्ट मोर्टेम में क्षत विक्षत हुई लाश और कभी कभी जिंदा होने का आभास कराती नवयौवनाओं की लाश |उस रात भी म्युन्सिप्लिटी वाले एक नवयौवना की लाश जुल्लू के हवाले कर चले गए थे | हमेशा की तरह शराब में धुत जमादार आया और जुल्लू की मदद से लाश को चिता की पटरी पर लिटा कर डगमगाता हुआ शमशान भूमि के सदद के पास बनी झोपडी में जाकर निढाल लेट गया | जुल्लू को बस बिजली का बटन दबाना था और वह लाश पल में खाक हो जाती |


जुल्लू ने बटन को दबाने से पहले उस लाश की ओर देखा |२० २२ साल की कोई लड़की थी |बेहद खूबसूरत | इतनी खूबसूरत की मौत भी उसकी खूबसूरती की अलामत छीन नहीं पायी थी | जाने क्या हुआ जुल्लू को ,उसने पहले तो उस लाश के  गोरे गालों को छू कर देखा और फिर उसके ऊपर पड़े कफ़न को पूरी तरीके से हंटा दिया | सामने नंगी लाश थी ,मछली के पीठ जैसी उज्जवल ,खूबसूरती और वीभत्सपने का साथ साथ नुमाया करती लाश | उस लाश को देखकर उबकाई भी हो सकती थी और शायद इच्छाओं का शैतानी स्पंदन भी |मुद्दा ये था कि निगाह किसकी थी |आम आदमी की या उस जुल्लू की जिसे कुछ दिन पहले एक रंडी का धिक्कार नसीब हुआ था | जो चुपके चुपके अपनी बीबी के यौवन को निहारा करता था पर उस यौवन का रसास्वादन करने की हिम्मत सिर्फ इसलिए नहीं जुटा पा रहा था क्यूंकि उसे इस बात का डर था कि कहीं वह पिछले बार की तरह नाकाम न हो जाए और बीबी से उसे वही हिक़ारत,वही धिक्कार न नसीब हो जाए जो उसे रंडी से मिला था |उसने बीबी के साथ अपनी मर्दानगी की आज़माइश नहीं की पर निशक्त लाश के साथ वह ऐसा कर सकता था |वह नाकाम भी होता तो लाश उसे चिढाती नहीं ,उसे नामर्द नहीं कहती |शायद उस वक़्त ऐसा हीं कुछ तसव्वुर रहा होगा जूलू का जब उसने ख़ुद को उस बेजुबान लाश पर आरोपित कर दिया

जुल्लू ने लाश के साथ समागम कर क्या निष्कर्ष निकाला यह तो नहीं पता पर अगले छह महीने तक उसकी हवसनाक हरकतें चलती रही |जब भी किसी बेजान औरत का शरीर उसे मिला उसने उसे जलाने से पहले ख़ूब निचोड़ा | इस छह महीने के दौरान उसने अपनी बीबी को भी ख़ूब निहारा पर दूर दूर से |तब जब उसकी बीबी सोयी होती थी ,तब जब उसका आँचल ढलका होता था पर वह कभी अपनी बीबी के करीब नहीं गया |

जुल्लू के रात की ड्यूटी के छह महीने पूरे हो गए और उसकी ज़गह दूसरे सुपर वाईजर ने रात का कमान सम्हाल लिया |जुल्लू अब उस श्मशान भूमि में दिन में ड्यूटी देने लगा |सूरज की रौशनी ने जुल्लू के काले करतूतों को आश्रय देने वाली स्याह रात उससे छीन ली | वो जुल्लू जो कल तक रात की ड्यूटी से खार खाया करता था अब दिन की ड्यूटी से चिढने लगा | दिन की ड्यूटी का एक एक लम्हा उसे सदियों सा लगने लगा |उसका मन औरतों के बेजान पिंडों का स्वाद चखने के लिए तड़पने लगा |हवस का भूत सर पे ऐसा नाचने लगा था कि उसके आँखों की नींद तक काफ़ूर हो गयी |वह रात भर जग कर अपनी सोयी बीबी कोमल को निहारता रहता |एक रात जब उसकी हसरतें ज़्यादा कुचालें मारने लगीं तो उससे रहा नहीं गया और दम साधे वह अपनी बीबी के पास गया और उसकी साड़ी को उठाने लगा |हौले हौले उसने अपनी बीबी की साड़ी जांघों के ऊपर तक उठा दी और फिर अपलक अपनी बीबी को देखने लगा |सोयी बीबी उसे लाश सी प्रतीत हो रही थी ,निरीह ,निश्चेष्ट |उसे उस वक़्त वही लुत्फ़  मिल रहा था जो उसे लाशों से मिला करता था |पर तभी उस सोये शरीर में एक जुंबिश हुई ,जुल्लू की पत्नी बड़ी तेजी से उठी और जुल्लू को अपने बांहों के घेरे में कस लिया |दरअसल जब जुल्लू अपनी बीबी को निर्वस्त्र कर रहा था ,उसकी बीबी कोमल सोये हुए का अभिनय कर रही थी और उम्मीद कर रही थी कि उसके मन के सेहरा पे पहली बार बारिश होगी |पर जब जुल्लू ने ख़ुद को देखने तक सीमित रखकर कोमल को नाउम्मीद कर दिया तो कोमल से रहा नहीं गया और उसने सारी लाज-हया को तिलांजलि देकर जुल्लू को बांहों में भर लिया |पर ये क्या ! जुल्लू ऐसे बिदकने लगा मानो उसे बिजली की तार ने छू लिया हो |पल भर पहले जुल्लू के जिन आँखों में वासना के नीले डोर तैर रहे थे अब उन्हीं आखों में घबराहट  थी |उसने जोर लगाकर कोमल को ख़ुद से अलग किया और बिस्तर से दूर जाने लगा | कोमल शौहरशुदा होकर भी शारीरिक सुख से महरूम थी |पर अब शादी के ७ महीने बाद उसका सब्र ज़वाब दे चूका था |वह जुल्लू की निस्बत पाना चाहती थी ,उसके शरीर की महक अपने रेज़े रेज़े में भरना चाहती थी और इसलिए वह फिर भागी गयी और गिड़गिड़ाती हुई जुल्लू से लिपट गयी |इस बार उसकी पकड़ पहले से भी ज़्यादा ज़ोरदार थी और इसलिए जुल्लू ने भी अपना प्रतिकार उसी अनुपात में बढ़ा  दिया |एक ज़ोरदार धक्का और कोमल हवा में उछलती हुई पीछे की दीवार से जा टकराई |कोमल का सिर खरबूजे की तरह फट गया और रक्त का फव्वारा बह निकला | कोमल दर्द से तड़पने लगी | जुल्लू से भारी भूल हो गयी थी | पछतावे में सराबोर जुल्लू भागा हुआ कोमल के पास गया और लहुलुहान कोमल को सम्हालने की कोशिश करने लगा |वह बार बार कोमल से अपने किये की माफ़ी मांगे जा रहा था और उसके सर से हो रहे रक्त श्राव को रोकने की कोशिश कर रहा था | अचानक कोमल की तड़पन बंद हो गयी और उसका शरीर बेजान हो जुल्लू के गोद में लुढ़क गया |जुल्लू थोड़ी देर तक अविश्वास के आलम में जकड़ा रहा पर फिर धीरे धीरे उसके भाव बदलने लगे |आँखों में फिर से वही नीला डोर उभरने लगा |उसने कोमल की लाश को हौले से ज़मीन पर लिटा दिया और फिर धीरे धीरे कोमल के बेज़ान ज़िस्म पे पड़े हर कपड़ों को हँटाने लगा |रात की स्तब्धता में जुल्लू के वासनामय साँसों की धौंकनी स्पष्ट सुनाई दे रही थी |


-पवन कुमार श्रीवास्तव |


Monday, 13 August 2018

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस

लघुकथा:आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 9th Aug 2018.

विस्मयकारी अन्वेषणों की इस दुनिया में वह अंधा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसयुक्त चश्मा खऱीद कर प्रमुदित मन से अपनी तरुणवय की बेटी के साथ बाहर निकला ।चश्में ने झट से सेंसर की सहायता से सामने पड़े कुत्ते के बारे में अंधे के दिमाग को संदेश प्रेषित करते हुए कहा -'एक मित्रवत चौपाया अपनी दुम हिलाकर आपका स्वागत कर रहा है।'
अंधा मुस्कुराया और अपनी बेटी के साथ पास अवस्थित मेट्रो स्टेशन की ओर बढ़ चला।थोड़ी देर बाद अंधा अपनी बेटी के साथ मेट्रो पर सवार था और अपने विलक्षणकारी चश्मे की सहायता से लोगों को,वरन ऐसा कहिये कि लोगों के अंतरउद्भूत विचारों को पढ़ रहा था।
"सामने एक अतिकामुक व्यक्ति आपकी पुत्री के देह-विन्यास को वासनामयी दृष्टि से निहार रहा है और विचार रहा है कि 'अगर इस नवयौवना के साथ सोने मिल जाए तो आनन्द आ जाए।'"
'एक अन्य व्यक्ति आपकी पुत्री के शरीर पर मुद्रित टैटू और अर्वाचीन वस्त्र को देखकर अनुमान लगा रहा है कि अवश्य हीं आपकी पुत्री व्यभिचारिणी होगी।'
'एक कामकुंठित वृद्ध व्यक्ति मन हीं मन प्रार्थना कर रहा है कि उसके पास का स्थान खाली हो और आपकी खड़ी बेटी उसके बिल्कुल सन्निकट बैठ जाए'
अंधा इन उत्पीड़क संदेशों के आगमन से व्यथित हो गया ।उसे अपने अल्पकालिक अनुभव से यह भान हो गया कि पग पग पर ऐसे लोग भरे पड़े हैं और वह उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता और इसलिए अगले स्टेशन पर जैसे हीं मेट्रो का दरवाजा खुला,अंधे ने अपना चश्मा मेट्रो के बाहर फेंक दिया।
-पवन कुमार ।

Saturday, 11 August 2018

विप्लव

लघुकथा:विप्लव
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 10th Aug 2018.
अभिज्ञान एक जाति विशेष द्वारा किये जा रहे आंदोलन वाले दिन अपनी कार में बैठ अम्बानी हॉस्पिटल के लिये निकल तो पड़ा था पर उसे मुसलसल यह डर साले जा रहा था कि कहीं इस दुःसाहस का उसे खामियाजा न भुगतना पड़ जाए।
'ओय ऐड़े अपनी गाड़ी फुंकवायेगा क्या ?'
किसी गुज़रते राहगीर ने यह कहकर उसका डर और बढ़ा दिया ।पर चूंकि उसकी गर्भवती बीबी हॉस्पिटल में एडमिट थी,उसका हॉस्पिटल पहुँचना बेहद ज़रूरी था।
ऊहापोह में फंसे अभिज्ञान को तभी रास्ते पर आंदोलनकारियों का एक बैनर दिखा और इसके साथ हीं उसके दिमाग में एक युक्ति कौंधी।उसने अपनी कार के फर्स्ट एड बॉक्स से सैलो टेप निकालकर उस बैनर को अपने कार के बोनट पर चिपका दिया और चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर।रास्ते में मूक दर्शक बने पुलिस वालों के सामने चक्काजाम और तोड़-फोड़ करती आंदोलनकारियों की भीड़ दिखी, पर उत्पातियों ने अभिज्ञान को अपने आंदोलन का शिरकतदार समझ उसे जाने दिया।बल्कि कुछ आंदोलनकारियों ने उसे देखकर बड़े जोश से नारा लगाया'जय फलना' ।अभिज्ञान ने भी हाथ उठाकर 'जय फलना' कहा और निर्विध्न हॉस्पिटल की ओर बढ़ चला।काफ़ी फासले तक अभिज्ञान की यह तरक़ीब क़ामयाब रही पर एक ज़गह पुलिसवालों ने उसे रोक लिया और थाने चलने को कहने लगे।
चित्र साभार- गूगल
'अरे साहब मैं आंदोलनकारी नहीं हूँ,मैं तो उनकी जात का भी नहीं हूँ।यह बैनर मैंने उनको चीट करने के लिए लगा रखा है ताकि मैं हॉस्पिटल तक पहुँच सकूं जहाँ मेरी बीबी को लेबर पेन हो रहा है।मेरा वहाँ पहुंचना बहुत ज़रूरी है,मानवता की ख़ातिर कृपया आप मुझे जाने दें।'
अभिज्ञान 15-20 मिनट तक पुलिसवालों से चिरौरी करता रहा पर पुलिस वाले अंगद के पांव की तरह अपनी बात पे अड़े रहे।तभी अभिज्ञान के मोबाइल पर उसकी माँ का कॉल आ गया जो हॉस्पिटल में उसकी बीबी के साथ थी।
'तू अभी तक पहुँचा क्यों नहीं?बाय द वे मुबारक़ हो तू बेटे का बाप बन गया।'
माँ ने जब यह ख़बर सुनाई तो अभिज्ञान ख़ुश भी हुआ और इस ख़ूबसूरत मौके को चूक जाने पर दुखी भी।
'मैंने तो इसका नाम भी सोंच लिया है'सुशांत'।'
माँ ने जब ऐसा कहा तो अभिज्ञान झुंझलाते हुए बोल पड़ा-
'नहीं माँ इसका नाम विप्लव रखना'
'क्यों?'
'विप्लवकारी देश में जो पैदा हुआ है।'
-पवन कुमार ।

Friday, 10 August 2018

इश्क़ विथ अ फ्रॉड

लघु कथा:इश्क़ विथ अ फ्रॉड
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 10 th Aug 2018.
मैंने पहली बार उसे 'एलिक्जर' बार एंड रेस्टॉरेंट में देखा था जहाँ मैं अक्सर ख़ुद को ज़िन्दगी के पेचोखम से निज़ात दिलाने,जाम के दो घूंट भरने चली जाया करती थी।लम्बे क़द और आकर्षक चेहरे-मोहरे वाला वह शख़्स जब सुर की गिरहनें खोलता था तो दिल में हसरतें करवटें लेने लगती थीं ।मैंने कई दफ़ा अपनी फ़रमाइशी गानों की पर्ची उस तक पहुँचवाई थी और मेरे गानों की पसंदगी से मुत्तासिर हुआ वह नौजवान कई बार गाता गाता मेरे टेबल पर आकर मुझे भी गाने में शामिल कर लिया करता था।धीरे धीरे हममें थोड़ी मोड़ी तक़ल्लुफी बातें होने लगीं।
मेरे लब बेशक़ उससे लफ्ज़ तौल तौल कर बातें करते थे पर मेरा दिल उसके लिए उठते ,मचलते जज़्बातों का कोई हिसाब नहीं रखा करता था।मैं रफ़्ता रफ़्ता उसकी ओर खींची जा रही थी।वह अगर ज़रा सा भी मुझसे इश्काना हो जाता तो मेरा उसपर निसार होना तय था।
'वह लड़की जो सबसे अलग है' उस दिन उसने अपनी पुरकशिश आवाज़ में यह गाना गाया ।ऐसा लगा जैसे उस नग़में की गोद में मैं बैठी हूँ।मानों मुझे वह उस गाने का सदक़ा दे रहा हो।दिल से सपनीले बुलबुले उठे और चंद लम्हों की मियाद पूरी कर फूट गये।उसे हृदय के शांत सरोवर में सिर्फ़ कंकड़ फेंकना आता था।एक तरह से मेरे प्रति उसकी यही बेरब्त,बेपरवाह फ़ितरत मुझे उसका शैदाई बना रही थी।आख़िर हैं हीं कितने मर्द इस दुनिया में जो एक लड़की की ख़ुद में दिलचस्पी को अपनी मतलबपरस्ती में नहीं भुनाते!
एक दिन वह अचानक मेरे पास आया और बड़े अपनत्व से कहने लगा-'मुझे बधाई दीजिये और मेरे लिये अफ़सोस भी जताइये।'
'किस बात की बधाई?'
'मुझे टीवी के एक डेली सोप के लिये टाइटल ट्रैक गाने का मौक़ा मिला है ,6 लाख रुपये दे रहे हैं।'
'वाऊ व्हाट ए ग्रेट ब्रेक थ्रू...बहुत बहुत बधाइयां...पर ये अफ़सोस?'
'अफ़सोस इस बात का कि म्यूज़िक डायरेक्टर मेरा पैसा तब रिलीज़ करेगा जब मैं उसे जी.एस. टी. नंबर दूंगा।मैं ठहरा सिंगर ,कठिन से कठिन राग अलाप सकता हूँ पर ये कागज़ी झंझट मेरे पल्ले नहीं पड़ते।एक सी. ए. की मदद ले रहा हूँ पर जब तक ये फॉर्मेलिटीज पूरे करूँगा तब तक आलरेडी जो ख़स्ताहाली का ज़ख्म है उसमें और नमक,मिर्च लग जाएगा।'
'क्या आप उसे इस बार बग़ैर डॉक्यूमेंटल फॉर्मेलिटीज के पेमेंट करने का रिक्वेस्ट नहीं कर सकते?'
'अरे एक नम्बर का काइयां इंसान है वह,उसे झेलना सब के बस की बात नहीं...किसी की नहीं सुनता बस बात बात पर अंगुली करता है।एक बार मटन ख़रीदते वक़्त मटन के पीस करते कसाई को अंगुली कर करके बताने लगा 'यह नहीं वह पीस दो 'इस चक्कर में कसाई के चॉपर के नीचे कम्बख़्त की अंगुली आ गई।पर इन सबके बावज़ूद बन्दे की अंगुली करने की आदत नहीं गई।मेरे गाने में भी ख़ूब अंगुली की इसने।मैंने 5 तरीके से गाया तब जाकर इसने मेरा गाना लॉक किया।'
'ओह!'
मैंने हिमायत भरी प्रतिक्रिया दी।फ़िर मेरी तरफ़ से एक जज़्बाती राब्ता जो उससे जुड़ गया था,उसी के अधीनस्थ हो मैं उससे पूछ बैठी 'कितने रुपये में काम चल जाएगा?'
'80 हज़ार रुपये!'
शाइस्ता मुस्कान से लबरेज़ उसका चेहरा उसकी शराफ़त का आई-कार्ड था और इसलिए उसपर शक़ शुबहा करने की कोई गुंजाइश नहीं थी।मैंने अगले हीं दिन अपने एकाउंट से 80 हज़ार रुपये निकालकर उसके हवाले कर दिए।पर उस दिन के बाद से वह ग़ायब हो गया।उसके न आने की वज़ह होटल के मैनेजर को भी पता न था। उसके दिये मोबाइल नंबर पर मैनेजर की बात करने की कोशिश भी नाकाम रही थी क्योंकि उसका नम्बर स्विच ऑफ था।
चित्र साभार- गूगल
'क्यों नहीं आ रहा।कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया!'
मन के सौंवे हिस्से में एक मौहूम सा ख़्याल यह भी आया कि कहीं वह छलिया तो नहीं।पर मेरी इस नहीफ़ सोंच को हलाक करता वह लगभग 15 दिन के बाद शुक्रवार की शाम फ़िर मेरे टेबल के पास आया और पछतावे भरे लहज़े में कहने लगा'माफ़ी चाहता हूँ,कागज़ी करवाई के झमेले में आपसे इतने दिनों तक मिल न पाया।मैंने म्यूज़िक डायरेक्टर को अपना जी.एस. टी. नम्बर दे दिया और उसने मुझे पेमेंट भी कर दिया।'
यह कहकर उसने अपनी ज़ेब से एक चेक निकालकर दिखाया,कोई 6 लाख का चेक था।मुझे उस वक़्त कई ख़ुशियां एक साथ मिली - उसके प्रति बन रही मेरी गलत घारणा की टूटने की ख़ुशी, उसे पैसे मिलने की ख़ुशी और इन सबसे बढ़कर यह ख़ुशी कि वह फ़िर मेरी ज़िंदगी में लौट आया था।मैंने उसे बड़ा चहकते हुए मुबारक़बाद दी पर मेरा दी हुई मुबारक़बाद भी उसके चेहरे की परेशानी जनित सिलवटों को ग़ायब न कर पायी ।मैंने फ़िक्रमंद होते हुए पूछा-'क्या हुआ परेशान लग रहे हो ?'
'कल ईद के मौके पर बैंक हॉलिडे है,परसों इतवार ....यह चेक़ मंगलवार से पहले क्लियर नहीं हो पायेगा।मुझे आपके पैसे भी लौटाने हैं,आपको तो मैं मंगलवार भी पैसे दे सकता हूँ पर अफ़गानी मनी लेंडर जिससे मैंने मज़बूरीवश 50 हज़ार रुपये उधार लिए थे,मेरी जान के पीछे पड़ा है,कह रहा है,आज के आज पैसे चुकाओ,वरना खोपड़ी खोल दूंगा।'
उसकी इस बात ने मुझे बेहद डरा दिया।इस बार फ़िर मैंने पहल करते हुए उससे कहा कि वह मुझसे पैसे लेकर अफ़गानी के पैसे चुकता कर दे और मंगलवार को जब उसके एकाउंट में पैसे आ जाएं तो वह मेरे पैसे लौटा दे।वह अपनी नज़रों में मेरी ज़ानिब ढ़ेर सारा शुक्राना अहसास भर चुप रहा मानों उसके पास मेरी बात मानने के अलावा और कोई विकल्प न हो।मैंने ए. टी.एम. से इच्छित रकम निकालकर उसे दे दी।वह बार बार मुझे शुक्रिया कहता चला गया।मैं इस पुरसवाब अहसास में डूबी कुछ दिनों तक आत्म-मुग्ध रही तब तक जब तक कि मंगलवार बीते कई दिन न हो गये। अबकि जो वह ग़ायब हुआ तो फ़िर कभी दिखा हीं नहीं।धीरे-धीरे वक़्त उसके चेहरे पर लगा फ़रेबी नक़ाब उधेड़ता रहा और फ़िर एक दिन उसके बारे में मुझे यह यक़ीन हो गया कि वह एक ठग था जो मेरे जज़्बातों से खेल,मुझे लूट कर चला गया।
मैं एक नामचीन आई टी कंपनी में इथिकल हैकर थी जहाँ से मिलने वाली मोटी सैलरी मेरी सारी ज़रूरतों को निपटाकर भी बच जाया करती थी।पैसा खोना मेरी परेशानी का सबब नहीं था।जो चीज मुझे बेचैन कर रही थी वह थी धोखा ।मैं प्रतिकार की भावना से कंठ तक भर गई।मैंने इंटरनेट के हर संभावित गोशे में उसे खंगाल डाला।यहाँ तक कि अपनी हैकिंग स्किल की बदौलत उसके बैंक एकाउंट तक पहुंच गई।देखा उसके एकाउंट में तक़रीबन 8 लाख रुपये थे।'तुमने मेरे जैसे कई लोगों को मूंडकर यह रुपये जमा किये होंगे न !मिस्टर धोखेबाज़ देखो तुम्हारी हराम की कमाई का क्या हश्र करती हूँ।' मन हीं मन यह सोंचते हुए मैंने उसके एकाउंट के सभी पैसे एक समाजिक संस्था के एकाउंट में हस्तांतरित कर दिये।अब वह ठन ठन गोपाल बन चुका था।
वक़्त ने घाव भरा ।14 महीने बाद मैं इस जज़्बाती हादसे से पूरी तरह से उबर कर अपने पुराने रंग में लौट आई थी और उस दिन कार पार्किंग से निकल कर शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की ओर जा रही थी कि तभी अपनी आंखों के सामने मैंने एक बदहाल अंधी लड़की को लड़खड़ा कर गिरते देखा।मैं भागी भागी उसके पास गई और उसे खड़ा होने में मदद करने लगी।उसके हाथ से सड़क पर गिरे सामान को उठाने के लिए जैसे हीं मैं झुकी ,नीचे मेरे अतीत के खलनायक मिस्टर धोखेबाज़ की टूटी फ्रेम वाली तस्वीर पड़ी देख बुरी तरह चौंक गई।
'यह तस्वीर?'
'मेरे भैया की है ।आज हीं के दिन पिछले साल उनकी दिल की बीमारी से मौत हो गई थी ।आज उनकी बरसी में अपने ब्लाइंड शेल्टर से उनकी यह फ़ोटो फ्रेम ठीक कराने निकली थी कि गिर पड़ी ।'
यह सुनकर मेरा कलेजा मूंह को आ गया पर फिर भी ख़ुद पर किसी तरह अख्तियार करते हुए मैंने उससे पूछा- 'अपने भाई का किसी अच्छे अस्पताल में इलाज़ क्यों नहीं कराया?'
'भैया मुझे इस बेरहम दुनिया में अनाथ छोड़कर कभी जाना नहीं चाहते थे और इसलिए उन्होंने अपने ऑपरेशन के लिए बड़ी भागदौड़ करके पैसे जमा किये थे पर उनका सारा पैसा किसी हैकर ने लूट लिया।और वे बिना इलाज़....'
यह कहकर उस लड़की ने गहरी ग़मज़दा सर्द सांसें छोड़ी और अपने लबों पे मायूसी भरी चुप्पी ओढ़ ली।
मैं यह सब सुन वक़्ती तौर पे मुर्दा हो गई थी और अपनी पीठ पर अपनी हीं लाश का बोझ उठाये सोंच रही थी कि छलिया वह था या मैं!
-पवन कुमार ।

Monday, 6 August 2018

सेल्स कॉल

कविता:सेल्स कॉल
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 3rd Aug 2018.
चित्र साभार-गूगल 

रोज सेल्सकॉल कर करके तुम थक गए हो
जानता हूँ किसी मवादी घाव सा तुम पक गए हो।

मानता हूँ न कलात्मकता है,न रचनात्मकता है,
सेल्स में सेल्समैन बस एक हीं जुमला बकता है।

'सर वी हैव अ ग्रेट प्रोडक्ट टू ऑफर,
एकाउंट में डाल दूं या पहुंचा दूं घर।'

तुम्हें हर रोज एक हीं डफली,एक हीं राग बजाना है,
बिज़नेस के लिए ग्राहकों के सामने गिड़गिड़ाना है।

याद रखो घर में बीमार बाप,कुंवारी बहन और कई मुनहसिर रिश्ते हैं।
बच्चों की स्कूल फीस,घर का राशन पानी और अनचुकाई किश्ते हैं।

कैसे भी घर का चूल्हा चौका तो चलाना है,
इसलिए आंखे मूंद कर हलाहल पी जाना है।

लड़की हो तो चमड़ी दिखाओ,
लड़के हो तो दमड़ी दिखाओ,
हंसकर,मुस्कुराकर या रोकर,
जैसे भी हो ग्राहक को लुभाओ।

सामने वाला चाहे कमीना हो,तुम सब्र धरे रहना,
होठ के विषाद पर मुस्कराहट का अब्र जड़े रहना।

गिफ़्ट के चमकीले जामे में घूस दो,
वो जो मांगे तुम उनके मुंह में ठूंस दो।

त्यागो शर्म को ,ख़ुद को आले दर्ज़े का बेशर्म बनाओ,
अभी तो पाताल तक गिरे हो,ख़ुद को और नीचे गिराओ।

बेइज्जती का नीम,ज़िल्लत का करेला चख जाओ,
साला सेल्स के सारे उल्टे-सीधे हथकंडे परख जाओ।

चाहे कोई भी पेंच,कोई भी तिगड़म लगाओ,
लाओ,लाओ,लाओ किसी तरह बिज़नेस लाओ।

तो क्या जो सेल्स कॉल कर करके तुम थक गए हो
तो क्या जो किसी मवादी घाव सा तुम पक गए हो।