लतामंगेशकर की जीवनी
(पवन की कलम से)
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चित्र साभार- गूगल
लतामंगेशकर की जीवनी
(पवन की कलम से)
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(पवन की कलम से)
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लता मंगेशकर नग़मासराई नहीं करतीं
बल्कि करिश्मासाज़ी करती हैं,सुरों की ऐसी
तिलस्मी दुनिया पैदा करती हैं जिससे बाहर निकलने का हुनर बड़े बड़े अय्यारों को भी
नहीं आता।लता अपनी सुरमई आवाज़ से बंजर दिलों पर उम्मीदों की बुवाई कर देती
हैं।उनको सुनकर मायूसकुन लोगों को यह आश्वासन मिलता है कि बेलुत्फ़ सी दिखने वाली
ज़िन्दगी में उनकी आवाज़ की तरह बहुत कुछ स्वार्गिक है जिसका रसास्वादन किया जा सकता
है,जिसके बहाने जिया जा सकता है।लता मंगेशकर की आवाज़ में
इतनी मिठास है कि उनको सुनने के बाद कोई मिश्री की धेली भी खाये तो उसे वह धेली
बिल्कुल फीकी लगे।लता मंगेशकर की अविश्वसनीय ख़ूबियों को देखकर बरबस कौतूहलता जग
उठती है कि आख़िर कैसा था वह माहौल ,वह ज़मीं,वह घर-आँगन वो ख़ुशक़िस्मत परिवार जिनकी सरपरस्ती में लता पली बढ़ी और सुर की
जादुई गिरहनें लगाना सीखी।आइये यह जानने के लिये अतीत की वीथिका में चलते हैं।
लतामंगेशकर के पूर्वज :
गोवा के एक छोटे से मराठी बाहुल्य गाँव में शिव का एक मंदिर
है जिसे मंगेशी मंदिर कहा जाता है | मराठी
में शिव के एक अवतार को मंगेश कहते हैं| मंगेशी मंदीर का नाम
मंगेशी शिव के इसी अवतार के नाम पर रखा गया है | मंगेशी
मंदिर इस इलाके में रहने वाले लोगों की आस्था की धुरी है इसलिए इस मंदिर से संलग्न
गाँव को मंगेशी गाँव कहाँ जाता है |
19 वीं शताब्दी के आखिरी कुछ सालों की बात है
,मंगेशी गाँव में गणेश भट्ट और येशुबाई नाम का एक दम्पति रहा
करता था |गणेश भट्ट मंगेशी मंदिर के पुजारी थे और येशुबाई
देवदासी समाज से थीं और देवदासियों के लिए तब के तयशुदा प्रावधान के अनुसार वह
मंगेशी मंदिर में रहकर भगवान शिव की पूजा अर्चना किया करती थी|येशुबाई स्वर मधुरिमा की बहुत धनी थीं और इसलिए वह शिव के लिए भजन के रूप
में सुरों की थाली सजा कर लाया करती थी | जब येशुबाई गाती
थीं तो ऐसा लगता था जैसे स्वर्ग से खुद सरस्वती मंगल गान गाने धरा पर उतर आई हों |इश्वर ने येशुबाई को उनकी इस अगाध श्रद्धा और सेवा के लिए पुरस्कृत करते
हुए सन 1900 ईसवी में दिनानाथ नाम का ऐसा पुत्र रत्न दिया
जिसने राग रागनियों को अपने सुर के तारों से बांध कर अपने कंठ में क़ैद कर लिया |ये दिनानाथ और कोई नहीं स्वर मल्लिका लता मंगेशकर के पिता थे |
दिनानाथ को माँ से सुर की अनूप सौगात मिली और मंगेशी मंदिर
से 'मंगेशकर' का वो सुख्यात नाम मिला जो सालों बाद उनकी बेटी लता की शख्सियत का अभिन्न
हिस्सा बन गया |
दीनानाथ मंगेशकर संगीत में सिद्धहस्त तो हुए हीं,नाटक में भी उन्होंने गज़ब की प्रवीणता हासिल
कर ली और मराठी नाट्य- मंच के एक लोकप्रिय कलाकार के रूप में बरसों काम करते रहे |
दीनानाथ मंगेशकर ने सन 1935 के आस पास कुछ
फ़िल्में भी प्रोड्यूस की | उन्होंने नाटक और संगीत के
क्षेत्र में खूब जौहर दिखाया पर असल जौहर उन्होंने तब दिखाया जब उन्होंने
अंग्रेजों के मनाही के बावजूद शिमला में ब्रिटिश वायसराय के सामने महान देश भक्त
वीर सावरकर का लिखा देशभक्ति भरा गीत गाया |लता मंगेशकर का
गाया गीत 'ए मेरे वतन के लोगों ' कैसे
पूरे हिन्दुस्तान में देशभक्ति की लौ जलाने वाला इंधन साबित हुआ यह बात लता के
पिता दीनानाथ मंगेशकर के जीवन के इस वाकया को जानने के बाद समझ में आती है |
यह अहसास होता है कि लता के सुर में भी देशभक्ति का वही जज़्बा घुला
था जो उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर के लहू में बहा करता था |
दीनानाथ मंगेशकर ने अपने जीवन काल में दो शादियाँ की पर
पहली पत्नी नर्मदा और उनसे हुई बेटी दोनों हीं दीनानाथ के शादी के कुछ हीं सालों
के अन्दर स्वर्ग सिधार गयीं | दीनानाथ मंगेशकर
ने अपनी मरहूम पत्नी नर्मदा के बहन शेवंती से पुनर्विवाह किया और इनसे उन्हें 5
औलादें हुईं -लता ,मीना ,आशा ,उषा और हृदयनाथ | लता
अपने पाँचों भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी |
लता का संघर्षपूर्ण बचपन :
लता मंगेशकर का वास्तविक नाम लता नहीं बल्कि हृदया था| दीनानाथ मंगेशकर अपनी बेटी लता को पहले पहल
हृदया कहकर पुकारते थे और लता नाम तो उनकी पहली पत्नी से जन्मी उस बेटी का था जो
बहुत कम आयु में हीं चल बसी थी | बाद में दीनानाथ अपनी बेटी
हृदया में अपनी मरहूम बेटी लता की प्रतिछाया देख उसे हृदया के बजाय लता कह कर
पुकारने लगे | लता नाम लता की तरह फैलता गया ,फैलता गया और फिर एक वक़्त आया जब लता नाम की मधुमालती की बेल कीर्ति-कुंज
के हर शाख हर शज़र पर छा गयी|
दीनानाथ मंगेशकर ने संगीत और नाटक में हुनरमंद होने के लिए
और उस हुनर का मुज़ाहिरा करने के लिए कई शहरों को खंगाला और आखिरकार मध्यप्रदेश के
इंदौर शहर में बस गए| इसी इंदौर शहर में
28 सितम्बर सन 1929 में लता मंगेशकर का
जन्म हुआ |
लता के पिता शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता थे और इसलिए लता को
संगीत के लिए एक ऐसा बना बनाया माहौल मिला जहाँ न प्रेरणा श्रोतों की कमी थी और न
हीं सीखने के मौकों की | वैसे तो एक संगीत
विद्यालय में हजारों बच्चे संगीत सीखते हैं पर कोई कोई बच्चे हीं ऐसे होते हैं जो
अपनी काबिलियत के दम पे ख़ास मुकाम पा लें और लता जैसा मुकाम तो सदियों में भी कोई
नहीं पा सका है | लता ख़ास थी इसलिए उन्होंने घर के
प्रेरणादायी माहौल में अपने संगीत के हुनर को खूब साधा | 5 साल
की उम्र में हीं वह पिता को उनके नाटक के संगीत रचने में मदद करने लगी|दीनानाथ ने अपनी बेटी को अपनी कुव्वत के आखिरी क़तरे तक सिखाया और जब
उन्हें लगने लगा कि लता उनके सिखाने की परिसीमाओं को पार कर गयी है तो उन्होंने
लता को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सिखाने इंदौर के कई जाने माने
उस्तादों के पास भेजा|अफ़सोस दीनानाथ मंगेशकर अपनी बेटी के
आगे की तरक्की को नहीं देख पाए और सन 1942 में जब लता महज़ 13
साल की थी ,वे लता को अनाथ बना कर चले गए |
दीनानाथ मंगेशकर एक निम्न- मध्यम वर्गीय किसान परिवार से थे
और उस पर से उन्होंने नाटक और संगीत का शौक पाल लिया था जो मान सम्मान तो बहुत दिलाता
था पर पैसों के मामले में बहुत कंजूसी करता था | इसलिए
दीनानाथ जैसे जैसे संगीत और नाटक की और उन्मुख होते गए ,उनकी
आर्थिक बदहाली बढ़ती गयी | सर पे 5 -5 संतानों
के लालन पालन का दायित्व आ गया पर आय में कोई इज़ाफ़ा न हुआ | दीनानाथ
मंगेशकर ने आर्थिक कुचक्र से बाहर निकलने के लिए फ़िल्म बनाने का भी दांव खेला पर
वह दांव उन्हें ग़रीबी के दलदल में और भी गहरा धंसा गया जब उनकी बनायीं फ़िल्में
बॉक्स ऑफिस पे पिट गयीं | और जब दीनानाथ का इंतकाल हुआ तो वे
अपने पीछे मुसीबतों का विशाल पहाड़ छोड़ कर गए जिसे लांघने की जिम्मेदारी सबसे बड़ी
औलाद होने की हैसियत से लता पर थी | लता को खुद भी उस पहाड़
को लांघना था और साथ 4 छोटे भाई बहनों को भी लेकर चलना था |
13 साल की कच्ची उम्र में लता के लिए वह जिम्मेदारी बहुत बड़ी
जिम्मेदारी थी |
इस नन्ही सी लड़की की बर्दाश्त करने की कुव्वत,उसका मुसीबतों से जूझने का माद्दा देखिये ,उसने न सिर्फ मुसीबतों के भंवर में डूब रही अपनी नैय्या को बाहर निकाला
बल्कि अपने जोश के मस्तूल और हिम्मत के पतवार के सहारे अपने ज़िन्दगी के नाव को
भव-सागर में खेने लगी और अपने भाई बहनों को लेकर चल पड़ी किनारे की और | लता जानती थी कि पिता द्वारा छोड़ी थोड़ी बहुत जमा पूंजी ज़ल्दी हीं ख़त्म हो
जायेगी और आने वाला भविष्य उसके और उसके परिवार के लिए ढेरों चुनौतियाँ लेकर आएगा |
वह यह भी जानती थी कि ज़िन्दा रहने के लिए उसके पास बस एक सहारा था
और वो सहारा था संगीत का | संगीत हीं भविष्य में उसके और उसके
परिवार के लिए दो जून की रोटियां सुनिश्चित कर सकता था और इसलिए लता ने अपने संगीत
के हुनर को और भी ज़्यादा तराशने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना शुरू कर दिया |सूरज अभी रात के पहलू में सोया हीं होता था और लता बिस्तर छोड़ दिया करती
थी और अकेले में संगीत का घंटो रियाज़ किया करती थी |
लता के घर में ऐसी फांकाहाली हो गयी थी कि दो जून की
रोटियों के भी लाले पड़ने लगे थे |लता को कुछ भी करके
अपने घर के चूल्हे को जलाए रखना था | लता खूबसूरत नैन नक्श
की स्वामिनी थी और इसलिए उनका चेहरा फिल्मों के लिए मुफ़ीद था | इस चेहरे और मधुर कंठ की बदौलत उन्हें सन 1942 में
बसंत जोगेलकर की मराठी फ़िल्म 'किती हसाल ' के लिए गाने और अभिनय दोनों का एक छोटा सा मौका मिला | लता को एक्टिंग का शौक़ नहीं था पर उस वक़्त हालात ऐसे थे कि वह दो पैसे
सुनिश्चित करता कोई भी अच्छा काम लता कर लेती | लता एक्टिंग
कर ख़ुश हो न हो पर लता गायकी का मौका पाकर बेहद ख़ुश थी |पलकों
पे गायकी से सबंधित कई सपने सजने लगे थे | पर जब फ़िल्म परदे
पर आई और लता ने जब वह फ़िल्म देखी तो वह हैरान रह गयी ,उसका
गाना उस फ़िल्म से नदारत था | बसंत जोगेलकर ने एडिटिंग के
दौरान लता का गाया गीत फ़िल्म से हटा दिया था | 13 साल की लता
उस दिन खूब रोई थी और उसके आंसू पोछने वाला कोई नहीं था | वो
पिता जो लता के चेहरे पर शिकन का एक क़तरा भी नहीं ठहरने देते थे अब किसी और
दुनियां के बाशिंदे बन गए थे |
कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसका ख़ुदा होता है | लता के मामले में यह बात सोलह आने सच हुई |
ऊपर वाले ने लता की मदद करने के लिए मास्टर विनायक के रूप में अपना
एक नुमाईन्दा भेज दिया |मास्टर विनायक बॉलीवुड और मराठी सिने
जगत के एक सक्रीय एक्टर और डायरेक्टर हुआ करते थे और उनकी लता के पिता दीनानाथ
मंगेशकर से गाढ़ी दोस्ती थी |दीनानाथ के जीवन काल में उनका
अपने दोस्त दीनानाथ मंगेशकर के घर रोज़ाना का आना जाना लगा रहता था |उन्होंने लता को गाते सुना था और वे लता के गायकी से बहुत प्रभावित थे |
इसके अलावा उनके अन्दर किसी बहाने अपने मरहूम दोस्त की बेटी लता की
आर्थिक मदद करने की इच्छा भी बहुत प्रबल थी | और इसलिए जब
उन्होंने सन 1942 में मराठी फ़िल्म 'पाहिली
मंगाला-गौर ' बनाना शुरू किया तो गायकी के लिए उन्होंने झट
से लता को याद किया |इस फ़िल्म में लता ने एक छोटी सी भूमिका
भी की | इस बार लता के गानों की काट छांट नहीं हुई और पहली
बार लता की आवाज़ फ़िल्म के ज़रिये श्रोताओं तक पहुंची | बहुत
छोटे पैमाने पर हीं सही लता ने इस फ़िल्म के ज़रिये सुनने वालों के दिल पे दस्तक
देना शुरू कर दिया | साल भर बाद लता को एक और फ़िल्म ‘गजबाहू’ के लिए पहली बार हिंदी गाना गाने का मौका
मिला | गाने का बोल था 'माता एक सपूत की
दुनिया बदल दे तू |
लता का मुंबई पलायन और फ़िल्मी करियर:
लता के ज़माने में हिन्दुस्तान में स्वतंत्र गायकी के लिए
आर्थिक प्रतिफल बहुत सीमित हुआ करता था | गायकी
को कहीं अगर पैसों में भुनाया जा सकता था तो वह थी फ़िल्म इंडस्ट्री जो मुंबई में
अवस्थित थी | इंदौर में बस क्षेत्रीय फिल्मों का हीं कारोबार
चलता था, वह भी बहुत छोटे स्तर पर| साल
में इक्का दुक्का फ़िल्में हीं बनती थीं और इसलिए लता को इंदौर में बहुत ज़्यादा काम
नहीं मिल पाया |ओस चाटकर प्यास नहीं बुझाई जा सकती | लता की ग़ुरबत की आग को छींटपूट कामों का छींटा बुझा नहीं पाया और लता अपने
परिवार वालों के साथ जलती रही उस आग में तब तक जब तक कि किस्मत ने उसे मुंबई नहीं
पहुंचा दिया |मास्टर विनायक जो लता के खैरख्वाह भी थे और
रहनुमा भी,ने जब अपना प्रोडक्शन ऑफिस इंदौर से मुंबई शिफ्ट
कर लिया तो उन्होंने लता को भी अवसरों के खान मुंबई में आने की दावत दी | लता ने वह दावत स्वीकार कर लिया और चली आयीं परिवार समेत स्वप्निल नगरी
मुंबई ,ख़ुद के सपने भुनाने | यह सन 1945
की बात है |
लता जानती थी कि मुंबई में उन्हें एक से बढ़कर एक धुरंधर
गायिकाओं से होड़ कर अपने लिए मौका झपटना है | एक
योद्धा अगर रणभूमि में निहत्था उतर जाए तो उसकी पराजय निश्चित है | लता हारने के लिए नहीं जीतने के लिए आई थी और इसलिए उन्होंने अपने सुरों
के तरकश में एक से बढ़कर एक मारक बाण रखना शुरू कर दिया | इसके
लिए उन्होंने उस्ताद अमानत अली खां से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम लेनी
भी शुरू कर दी | वक़्त के साथ साथ लता गायकी में और भी दक्ष
होती गयी |
मुंबई के आसमान के नीचे लता ने सन 1945 में विनायक की पहली हिंदी फ़िल्म ‘बड़ी माँ’ के लिए भजन 'मां तेरे
चरणों में ' गाया | इस फ़िल्म में लता
ने अपनी छोटी बहन आशा के साथ एक छोटा सा किरदार भी निभाया | एक
साल बाद लता मंगेशकर ने विनायक की एक और फ़िल्म 'सुभद्रा'
के गानों को अपनी आवाज़ दी |लता ने उसी साल
बसंत जोगेलकर की हिंदी फ़िल्म 'आप की सेवा में 'के लिए भी एक गीत गाया | गीत का बोल था 'पा लागूं कर जोड़ी ' और धुन दिया था संगीतकार दत्ता
दावजेकर ने |
लता ने जब मुंबई के माया नगरी में कदम रखा था ,उस वक़्त मुंबई में हीं नहीं बल्कि सारे
दक्षिण एशिया में नूरजहाँ नाम की गायिका की तूती बोला करती थी| नूरजहाँ को उसकी बेमिसाल आवाज़ की मल्कियत के लिए मल्लिका-ए-तरन्नुम कहा
जाता था | उसकी शोहरत का परचम इस कदर लहरा रहा था कि हर कोई
अपनी फ़िल्मों में उससे अपने गीत गव्वाने के ख्वाब देखा करता था और जिन फ़िल्मकारों
को नूरजहाँ का वक़्त नसीब नहीं होता था ,वे दूसरी गायिकाओं से
गव्वाते थे पर उन्हें नूरजहाँ के सांचे में ढाल कर |लता
मंगेशकर जब आयीं तो इन संगीतकारों ने लता को भी नूरजहाँ के आवाज़ी दायरे में बांध
दिया | इसका नतीज़ा यह निकला कि वो लता जिसमें अपनी आवाज़ से
पूरी दुनिया फ़तह करने का दम ख़म था ,ख़ुद को भूली नूरजहाँ के
हीं अंदाज़ में गाती रही | लता की गैर-कुदरती गायकी अच्छी रही
पर इतनी अच्छी नहीं कि नूरजहाँ को विस्थापित कर लता को स्वर के सिंहासन पर
विराजमान कर सके | नूरजहाँ से उसकी बादशाहत छीन सके |फिर आ पहूचा वो वक़्त जिसने हिन्दुस्तान की ज़मीन के साथ साथ हिन्दुस्तान की
संस्कृति ,हिन्दुस्तान की कला और कलाकारों को भी दो खेमों
में बाँट दिया | 1947 के बंटवारे में कला और संस्कृति के
खुशबूदार गुलज़ारों से लहलहाती ज़मीन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के मुख्तलिफ़ टुकड़ों
में टूट कर अलग हो गयी | नूरजहाँ पाकिस्तान चली गयी और लता
मंगेशकर हिंदुस्तान में रह गयीं |हालाँकि हिंदुस्तान की ज़मीन
पर दो धुरंधरों के फ़न के टकराव की सूरत बनते बनते रह गयी पर हिंदुस्तान से इतर
ज़मीन पर दोनों स्वर वीरांगनाओं की ख्यातियां आपस में खूब भिड़ीं और एक वक़्त आया जब
लता मंगेशकर ने नूरजहाँ को पछाड़ दिया| पर यह हुआ बाद में|अभी तो लता को बहुत पापड़ बेलने थे |
बंटवारे ने अगर लता को उनकी प्रतिद्वंदी नूरजहाँ से निज़ात
दिला दी तो इसने उन्हें अपने गुरु अमानत अली खां की शागिर्दी से भी महरूम कर दिया
जब अमानत अली खां साहब बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए | अब लता बग़ैर गुरु के दिशाविहीन महसूस कर
रही थीं | उनका आत्मविश्वास कमज़ोर पड़ने लगा था | वो तो भला हो संगीतकार गुलाम हैदर साहब का जो इस कमउम्र बाला का हौसला
बढ़ाने आ गए|उनकी की हौसला अफज़ाई से लता को काफी संबल मिला और
वह एक नए जोश ,नए वलवले के साथ अपनी सुर-साधना में जुट गयी|
इस दौरान उन्होंने बड़े ग़ुलाम अली साहब के शिष्य पंडित तुलसी दस
शर्मा से संगीत के गहराइयों को सीखा | उन्होंने अमानत खां
देवासवाले से भी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली |
लता में सीखने की कैसी आग थी इस बात को हम एक किस्से के
हवाले से समझ सकते हैं |सन 1947-48 की बात है ,दिलीप जी संगीत निर्देशक अनिल विश्वास के
साथ अपने किसी फ़िल्म के सेट पर जाने के लिए ट्रेन में सफ़र कर रहे थे | अनिल विश्वास ने लता को गायकी के लिए मुक़र्रर कर रखा था ,इसलिए लता भी उनके साथ थी| लता उस समय एक नवोदित
गायिका हीं थी और दिलीप भी कोई बहुत बड़ा नाम नहीं बने थे ,इसलिए
इन सब कलाकारों के लिए ट्रेन से सफ़र कर पाना मुमकिन हो पा रहा था|दिलीप कुमार से जब अनिल विश्वास ने लता का तार्रुफ़ गायिका के तौर पर कराया
और लता से बातचित के सिलसिले में दिलीप ने जब लता की ज़ुबान में मराठी अंदाज़ पाया
तो उन्हें इस बात का शक हुआ कि उर्दू अल्फाज़ से भरे गानों को लता कैसे
दक्षतापूर्वक गा पाएगी | दिलीप दिल में उमड़ रहे ख्यालों को
ज़ुबान पर लाने में ज़रा भी देर नहीं करते थे |उस दिन भी
उन्होंने अपने शक का खुलासा करते हुए लता के सामने हीं अनिल विश्वास से पूछ डाला
कि एक मराठी मुलगी कैसे भारी भरकम उर्दू शब्दों से भरे गाने गाएगी|कोई और होता तो दिलिप साहब की कही बातों को ज़्यादा तवज्जो नहीं देता पर
लता अधकचरी काबिलयत के बूते संगीत की दुनिया में येन केन प्रकारेण अपनी गायकी की
दूकान चलाने नहीं आई थी |उनका इरादा संगीत-शिरोमणि बनने का
था और इसलिए उन्होंने दिलीप साहब की बात को दिल से लगाते हुए अपनी उर्दू ज़ुबान
दुरुस्त करने का पक्का मन्सूबा बना लिया |वो अनिल विश्वास के
असिस्टेंट शफी अहमद की मदद से मौलाना महबूब नाम के एक उर्दू के उस्ताद तक पहुंची
और उनसे उर्दू ज़ुबान के सही तलफ़्फ़ुज़ की तालीम लेने लगी और कुछ समय बाद उर्दू
अल्फ़ाज़ से भरे गीत को सही सही गाकर उन्होंने दिलीप साहब को दिखा दिया कि व्व किस
मिटटी की बनी हैं |लता ने अपनी उर्दू ज़ुबान तो ठीक की हीं ,शास्त्रीय संगीत में भी दक्षता हासिल करने के लिए उन्होंने दिन रात एक कर
दी | लता ने ख़ुद को तपा कर कुंदन बना लिया था | गुरु की क्षत्र छाया में और रियाज़ के लम्बे और लगनशील सफ़र से गुज़र कर लता
की गायकी का इल्म इस स्तर का हो गया था कि उन्हें नक़ल और असल का फ़र्क मालूम पड़ने
लगा था| शुक्रिया उनके इस इल्म का कि उन्होंने नूरजहाँ के
अंदाज़ में गाना छोड़ दिया और ख़ुद की कुदरती आवाज़ में गाना शुरू कर दिया | जैसे सुबह की किरणें पड़ने पर गुलाब की पंखुड़ियों पर पड़ी ओस मोतियों सा चमक
उठती है ,इल्म की शुआएं जब लता के स्वर-शबनम पे पड़ी ,वह भी मोतियों सा चमक उठी | लता के आवाज़ की परवाज़ी
देख लता के गुरु सरीखे ग़ुलाम हैदर गर्व से फूले नहीं समा रहे थे |उन दिनों शशधर मुखर्जी 'शहीद' नाम
की एक फिल्म बना रहे थे | ग़ुलाम हैदर इस आत्मविश्वास से
लबरेज़ हो लता को शशधर मुखर्जी के पास लेकर गए कि लता की आवाज़ सुन मुखर्जी झट से
लता से अपनी फ़िल्म का गाना गव्वाने को राज़ी हो जायेंगे पर वहां हुआ बिलकुल ग़ुलाम
हैदर के उम्मीदों के उलट |शशधर मुखर्जी ने लता की आवाज़ को
बेहद हीं बारीक आवाज़ बता कर खारिज़ कर दिया |यह लता का नहीं ग़ुलाम
हैदर का अपमान था जिन्होंने लता की काबिलियत पर भरोसा जतलाकर लता के लिए शशधर
मुखर्जी से मौका मांगा था | ग़ुलाम हैदर इस अपमान से इस कदर
चोटिल हुए कि उन्होंने वहीँ के वहीँ शशधर मुखर्जी को ढ़ेरों खरी खोटी सुना दी और
बड़े यकीन के साथ कहा कि एक दिन वो वक़्त आएगा जब गायकी की दुनिया में लता राज करेगी
और शशधर सरीखे लोग लता से अपनी फ़िल्मों में गाने की अर्जियां करते हुए उसके पैरों
पर लोटेंगे|यह बात ग़ुलाम हैदर ने भले गुस्से में आकर कही हो
पर लता ने इस बात को भविष्य में सच साबित कर दिया |बहरहाल
बात लता के तत्कालीन हालात की|
फिल्म इंडस्ट्री की जो एक सबसे बुरी बात है, वह यह कि इसपर 24 घंटे
मीडिया की गिद्ध निगाहें टिकी रहती है | ज़रा सा कुछ भी
मसालेदार होता है कि चट से ख़बर बनकर अख़बार के पन्नों पर आ जाता है | लता की आवाज़ को बारीक आवाज़ कहना एक आदमी शशधर मुखर्जी के ज्याति नज़रिए का
नतीज़ा था पर यह बात मीडिया द्वारा ख़बरों का हिस्सा क्या बनाई गयी ,सब शशधर मुखर्जी के नज़रिए का चश्मा पहन लता को देखने लगे और लता से कतराने
लगे | लता को फिल्म इंडस्ट्री के इस रवैये से बेहद दुःख
पहुंचा पर उन्होंने ख़ुद को कमज़ोर नहीं होने दिया | आलोचनाओं
के वो पत्थर जो उनपर फेंके जा रहे थे ,उसी पत्थर से लता
मंगेशकर ने अपनी सफलता की इमारत की बुनियाद बना ली|वो दुःख
और ज़िल्लत के थपेड़े सहती दिन रात संगीत के रियाज़ में लगी रहीं और अपने हुनर को
साबित करने का मौका तलाशती रहीं | सन 1948 में उन्हें फ़िल्म 'मजबूर' के
लिए गाना गाने का मौका मिला और उन्होंने अपने गाने 'दिल मेरा
तोड़ा' से श्रोताओं के श्रुति पटल पर अच्छा प्रभाव छोड़ा पर
असल तहलका मचाया उन्होंने एक साल बाद फ़िल्म 'महल' का गीत गाकर | उनका महल फ़िल्म के लिए गाया गीत 'आएगा आने वाला ' उस दशक का सबसे हिट गीत साबित हुआ |
इस गीत ने लोगों को लता की आवाज़ का दीवाना बना दिया |उस इकलौते गीत के बल पर लता ने रातों रात गायकी की सर्वोच्च गद्दी पर बैठी
गायिका का तख्ता पलट कर दिया और ख़ुद सुर -साम्राज्य की रानी बन गयीं |इसके बाद तो लता के लिए काम की बाढ़ सी आ गयी |एस.डी.बर्मन
,खैय्याम ,शंकर जय किशन ,नौशाद ,हेमंत कुमार और आनंद कल्याण जी जैसे बड़े बड़े
नामों से उनका नाता जुड़ गया | इन जौहरियों ने लता के सुर के
सोने को अपनी ख़ूबसूरत धुन के नगों में मढ़ दिया और श्रोताओं को इस करिश्मासाजी का
नतीजा ' बैजू बावरा (सन 1952 ),श्री 420
(सन 1955 ) ,देवदास (सन 1955),चोरी चोरी (सन 1956),मधुमती(सन 1958) और मुग़ले आज़म (सन 1960 ) जैसी फ़िल्मों के गीत के रूप
में चखने को मिला | इसी दशक में लता ने पहली बार सन 1958
में सलील चौधरी के संगीत निर्देशन में फ़िल्म मधुमती के लिए' आजा रे परदेशी 'गीत गाकर फ़िल्म फेयर का स्वाद चखा |लता को इस गाने के लिए फिल्म फेयर की ओर से सर्वश्रेष्ठ प्ले बैक सिंगर का
पुरस्कार दिया गया |लता का गाया मुग़ले आज़म का गीत 'प्यार किया तो डरना क्या ' वो गीत था जिसने कई युवा
दिलों में बंदिशों का बाड़ा लांघने का ,प्यार के दुश्मनों से
टकराने का दम भर दिया था| इस गाने के ज़माने में प्रेम के कई
हसीन हादसे हुए |कई प्रेमी युगलों ने इस गाने से हिम्मत उधार
लेकर अपने घर ,अपने समाज से बगावत की और शादी कर सदा के लिए
जीवन साथी बन गए | 50 के दशक में लता के गाये गानों ने लता
मंगेशकर नाम के एक ऐसे संस्थान का शिलान्यास कर दिया जिन्हें देख सुन कर कई
पीढियां गायिकी के गहराई को ,उसके मर्म को समझ पायी और गायन
के क्षेत्र में अपना एक मुकाम बना पायी |इसके बाद लता ने
दशकों के मर्तबान को अपने मीठे गीतों के मुरब्बे से भरने की एक रवायत सी बना ली ,एक ऐसी रवायत जो हाल फ़िलहाल तक बदस्तूर चलता रहा है | पेश है लता के गाये प्रसिद्द गीतों का दशकवार ब्योरा :
60 का दशक :
लता ने 50 के दशक को मुग़ले
आज़म के बेहतरीन गीत' प्यार किया तो डरना क्या' गा कर अलविदा कहा तो 60 के दशक की शुरुआत उन्होंने 'अल्लाह तेरो नाम' का एक ऐसा भजन गा कर किया जो हर
मज़हब की रियाज़त ,हर घर के प्रार्थनाओं का हिस्सा बन गया|
फिर उन्होंने गाया वो प्रसिद्द गीत 'ए मेरे
वतन के लोगों ' जिसे सुनकर नेहरु जी भी भाव विव्हल हो रो पड़े
थे |लता के गाये इस गीत ने देशभक्ति की वो लहर पैदा कर दी थी
कि हिंदुस्तान का कोई भी आदमी इस लहर से अछूता नहीं रहा था | हर दिल में देशभक्ति का जज़्बा हिल्लोरें मारने लगा था | सन 1962 के भारत चीन युद्ध ने कई भारतीय जवानों की
बलि ले ली थी |यह युद्ध भारत के दूर सुदूर के उन दुर्गम
सीमाओं पर लड़ा गया था जहाँ के ह्रदय-विदारक नज़ारों को कोई अखबार कोई रेडियो क़ैद
नहीं कर पाया था | टीवी तो उस वक़्त शैशव अवस्था में हीं था |लोग भारतीय जवानों की शहादत की संगीनता से ठीक से वाकिफ़ नहीं हो पाते ,भारतीय जवानों का बलिदान ज़ाया हो गया होता अगर 'ए
मेरे वतन के लोगों ' गीत लता के आवाज़ का चोला पहन लोगों को
नहीं झकझोरता | लता ने सन 1951 में फ़िल्म
‘सजा’ में एस डी बर्मन द्वारा रचित
संगीत के लिए अपनी आवाज़ देने का जो सिलसिला शुरू किया वह देवदास ,हाउस नंबर 44 जैसी फ़िल्मों के कारवां से होकर गुजरता
हुआ सन 1957 में तब थमा जब दोनों के बीच अनबन हो गयी |दोनों के बीच अनबन की वज़ह कुछ यूं बनी | बर्मन दा
ख़ुद तो वक़्त के पाबंद थे हीं ,दूसरों के मामले में भी घड़ी की
सुई पर अपनी निगाह रखे रहते थे |लता एक दिन अपनी मसरूफ़ियत के
आलम में बर्मन दा के कंपोज्ड किये एक गाने की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो पहुचने
में थोड़ी लेट हो गयीं | और यही दोनों के बीच मनमुटाव का कारण
बन गया | अगले 3 -4 सालों तक दोनों ने
साथ मिलकर काम नहीं किया | एस डी बर्मन साहब यह अच्छी तरह
जानते थे कि लता की भरपाई वही गायिका कर सकती थी जिसकी रगों में वही अनुवांशिक सुर
बहता हो जो लता का है और इसलिए वे लता की जगह गव्वाने ले आये लता की बहन आशा को |
लता सदाशयता से भरी थी | एस डी बर्मन के खेमे
में ख़ुद की जगह आशा को गाते देख न उन्हें एस डी बर्मन से कोफ़्त हुई और न हीं अपनी
बहन आशा से | बल्कि लता खुश हुई कि उसकी छोटी बहन को एस डी
बर्मन जैसे माहिर संगीतकार की क्षत्र छाया मिल गयी |लता का
यही गुण था जिसने लता को सबकी चहेती बनाये रखा और बर्मन डा से भी उनकी सुलह करा दी
| और इस सुलह का श्रेय गया 60 के उस
दशक को जो हर खुशियों और कामयाबियों को लता का पता दे लता की ओर भेज रहा था |
सन 1962 में लता और बर्मन साहब की सुलह क्या
हुई संगीत प्रेमियों की किस्मत जग गयी | दोनों ने मिलकर
संगीत की दुनियां को फिल्म गाइड(सन 1965) की ‘’आज फिर जीने की तमन्ना है ", "गाता रहे
मेरा दिल " और "पिया तोसे " फ़िल्म ज्वेल थीफ की 'होठों पे ऐसी बात' जैसे गानों से शादाब कर दिया |
एस दी बर्मन साहब ने अपने मेधावी सुपुत्र आर डी बर्मन को लता की
गायकी की वो जादुई छड़ी सौंप दी जो उनके बेटे के करियर को शानदार मुकाम तक पहुचाने
में मदद कर सकती थी | और हुआ भी यही | ‘छोटे नवाब’ ,’भूत बंगला’,’पति
पत्नी और वो ‘,’बहारों के सपने’ और ‘अभिलाषा’ जैसी फ़िल्मों में लता के सुरमई सानिध्य के
दम पर जूनियर बर्मन ने फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी पैठ जमा ली | लता ने अनपढ़ (सन 1962) ,वो कौन थी (सन 1964),जहाँ आरा (सन 1964) और मेरा साया(सन १९६६) जैसी
फ़िल्मों में मदन मोहन के साथ सुर और ताल का सामंजस्य बिठाया तो सन 1963 में फ़िल्म पारसमणि के ज़रिये उन्होंने लक्ष्मिकान्त प्यारे लाल पार्टनरों
के साथ भी अपने संगीतमय रिश्तों का आगाज़ कर दिया |लक्ष्मीकांत
प्यारेलाल और लता की युगलबंदी ने आगे चलकर गीत के कई खूबसूरत गुल खिलाये|
लता को अपनी मादरी ज़ुबान मराठी से बेहद प्यार था |और होता भी क्यूँ नहीं,आखिर इसी भाषा ने उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर के हुनर को पोषा था |उन्हें उनके अन्दर की काबिलियत को भुनाने का मौका नसीब कराया था | अब इस भाषा के प्रति आभार प्रकट करने की बारी लता की थी और लता ने अहसान
चुकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी |उन्होंने मराठी के सुरमई
बसेरों को बसाने में अपने भाई हृदयनाथ मंगेशकर समेत वसंत प्रभु ,सुधीर फडके जैसे कई मराठी संगीत कारों का भरपूर साथ दिया | जोश और उत्साह से लबरेज़ लता ,यहाँ तक कि खुद भी
संगीत निर्देशन के अनदेखे अखाड़े में उतर गयीं| और तो और
मराठी सिनेमा को उभारने की नीयत से उन्होंने मराठी फ़िल्मों के प्रोडक्शन में भी
हाथ डाल दिया और राम राम पाव्हाना (सन 1960),मराठा तितुका
मेल्वावा (सन 1963 ) ,मोहित्यांची मंजुला (सन 1963 )
, साधी माणसे (सन 1965 )और तम्बदी माटी(सन 1969
) फ़िल्में प्रोड्यूस की |
70 का दशक :
1970 के दशक में लता ने दुनिया को एक से बढ़कर
एक गीतों की सौगात दी| शुरुआत फ़िल्म प्रेम पुजारी (सन 1970
) और शर्मीली(सन 1971 ) के मनमोहक गीतों से
हुई | फिर आया कमल अमरोही साहब की बेमिसाल कृति पाकीज़ा जिसकी
अभिनेत्री थी ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी |सन 1972 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म पाकीज़ा में लता के गाये गीत 'चलते चलते मुझे कोई मिल गया था 'और 'इन्हीं लोगों ने ले ली ने दुपट्टा मेरा ' मीना पर
फ़िल्माए जाने वाले वो आखिरी गीत थे जिसके बाद मीना कुमारी दुनिया को अलविदा कह सदा
के लिए मौत की आगोश में सो गयी थी पर गैर-मजाज़ी नज़रिए से अगर देखा जाय तो इन गीतों
ने मीना को कभी मरने नहीं दिया |इन गीतों ने तो मीना को अमर
कर दिया|आज भी जब कभी लता के गाये ये गीत बजते हैं तो मीना
का वज़ूद इन गीतों में लहक उठता है |
लता के अनगिनत उपलब्धियों के जमावाड़े में में एक और उपलब्धि
जोड़ने आई फ़िल्म अभिमान | सन 1973 में प्रदर्शित हुई यह फ़िल्म एक संगीत प्रधान फ़िल्म थी | कहानी का समूचा ताना बाना दो ऐसे किरदारों (अमिताभ बच्चन और जाया भादुड़ी )
के इर्द गिर्द बुना गया था जो गायकी की दुनियां में मकबूलियत हासिल कर लेते हैं |
अमिताभ तो मंझे हुए कलाकार थे हीं, जया ने भी
इस फ़िल्म में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी और जया के दमदार प्रभाव को मुकम्मल बनाने में
योगदान दिया लता की आवाज़ ने | जया भादुड़ी अपने गायिका के
किरदार से न्याय नहीं कर पाती अगर उन्हें लता की आवाज़ नहीं नसीब हुई होती |
उस साल लता के गाये अभिमान के सारे गीत रेडियो के टॉप संगीत
कार्यक्रम 'बिनाका गीत माला' के शीर्ष
स्थान पर विराजमान रहे |
इस दशक में लता ने पुरस्कारों की झड़ी लगा दी | सन 1972 में उन्हें
फ़िल्म परिचय के गीत 'बीती न बिठाये रैना ' के लिए नेशनल अवार्ड जीता और सिर्फ 3 साल के अंतराल
में उन्होंने फ़िल्म कोरा कागज़ के लिए रूठे रूठे पिया गीत गाकर नेशनल अवार्ड का
सम्मान दुबारा अपने नाम कर लिया |
सन 1980 से
अबतक:
लता गयिकों की सिरमौर तो पहले से हीं थी,इस काल खंड में उन्होंने ख़ुद को एक लिविंग
लीजेंड बना लिया |अब लता उस पारस मणि सी हो गयी थी जिसके
छूअन से पत्थर भी सोना बन जाता है |
लता ने सन 1993 में
रुदाली के अपने गाये गीत 'दिल हूम हूम करे 'के रूप में कई रुदालियों को रोने का एक संगीतमय बहाना दे दिया तो इसी
फ़िल्म के एक गीत 'यारा सिली सिली ' से
उन्होंने नेशनल अवार्ड की तिगडी भी जमा दी |सभी नेशनल अवार्ड
के मुकाबले में यह नेशनल अवार्ड लता के लिए सबसे ज़्यादा मायने रखता था क्यूंकि इस
फ़िल्म को संगीत दिया था लता के सगे भाई ह्रदय नाथ मंगेशकर ने |लता ने इस काल खंड में आनंद मिलिंद ,नदीम श्रवन ,जतीन ललित ,दिलीप सेन समीर सेन ,उत्तम सिंह ,अनु मल्लिक ,आदेश
श्रीवास्तव और ए.आर.रहमान जैसे नवोदित पर प्रतिभावान संगीतकारों के साथ गाकर उनके
करियर को एक यादगार आयाम दे दिया |
ये वो ज़माना था जब आधुनिकता अपना अतरंगीपन दिखाकर पुराने
गायकों को डरा रही थी | गाने में शोखियाँ
और तेज़ तरारी इस तरह शामिल होने लगी थी कि पुराने गायक इस बदलाव से अपना तादाम्य न
बना पाने के कारण समर्पण कर रहे थे | पर लता अब भी राज कर
रही थी |उन्होंने न सिर्फ चांदनी ,लंम्हें
डर , दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे ,दिल
तो पागल है ,मुहब्बतें ,वीर जारा ,रंग दे बसंती, पेज 3 ,जेल जैसी
फ़िल्मों के लिए आधुनिक तबियत को फबने वाले गीत गाये बल्कि इन गीतों से साबित कर
दिया कि आधुनिक ज़माने में भी उनके अंदाज़ की गायिका कोई नहीं है |70 -80 साल की उम्र में 16 साल की लड़की की आवाज़ का जज़्ब
पैदा करने की कुव्वत हर किसी में नहीं होती|
लता ने गायकी करते हुए आधी सदी से ज्यादा गुज़ार दिया पर
उनकी आवाज़ का ज़ादू रत्ती भर भी कम नहीं हुआ | लता
के आँखों के सामने कई संगीतकारों की कई पीढियां आयीं और सन्यास लेकर चली भी गयीं
पर लता आज भी उसी करिश्मे के साथ क़ायम है जिस करिश्मे की इब्तिदा उन्होंने 60
साल पहले की थी | संगीतकार तो उन साजों से
संगीत पैदा करते हैं जिनपर उम्र ढ़लने का कोई असर नहीं होता पर एक गायिका का कंठ तो
उस शरीर का हिस्सा है जिसे उम्र की खिजाएँ सुखा देती हैं |ताज्जुब
होता है कि कैसे अब भी लता का कंठ आवाज़ की चाशनी से लबालब भरा है |लता ने एस डी बर्मन के साथ गाया और उनके बेटे आर डी बर्मन के साथ भी जोड़ी
जमाई |लता ने चित्रगुप्त के धुन पे भी नगमा छेड़ा और उनके
बेटे आनंद मिलिंद के संगीत पे भी गीत गाया |लता ने रौशन और
राजेश रोशन ,सरदार मल्लिक और अनु मल्लिक जैसे बाप बेटों की
दो दो पीढ़ियों और उनके बाद की पीढ़ियों को भी अपनी करिश्माई आवाजें उधार दीं ,और अब भी उनके पास देने के लिए वो कुआं बचा है जिसमें सुरों की अमृत भरी
पड़ी है |
लता ने अगर मुकेश .मन्ना डे ,महेंद्र
कपूर ,मुहम्मद रफ़ी और किशोर जैसे ख़ुदासाज़ गायकों के साथ सुर
की गांठें बाँधी तो गायकों की नयी पीढ़ी उदित नारायण ,एस पी बाल
सुब्रह्मण्यम ,कुमार सानु,अभिजीत
भट्टाचार्य ,रूप कुमार राठोड ,विनोद
राठोड और सोनू निगम जैसे सुर शाहों के साथ भी उन्होंने सफ़ल गठबंधन किया |
सभी साथी गायकों के साथ लता का बड़ा मधुर सम्बन्ध रहा पर
मुहम्मद रफ़ी के साथ कुछ सालों के लिए उनके रिश्तों में थोड़ी खटास आ गयी थी |दोनों के बीच के विवाद का कारण रॉयल्टी थी |
लता चाहती थीं कि गायक गायिकाओं को गाने से होने वाली कमाई में
रॉयल्टी मिले जबकि रफ़ी साहब का कहना था कि गायकी के लिए मिला एक वक़्त का
पारिश्रमिक काफी है ,रॉयल्टी की कोई ज़रुरत नहीं |इस मतान्तर ने कुछ ज्यादा हीं तूल पकड़ लिया और दोनों दिग्गज गायकों ने
गुस्से के मारे सन 1963 से 1967 तक एक
दुसरे के साथ कोई डुएट सॉन्ग नहीं गाया | सन 1967 में एस डी बर्मन साहब ने मध्यस्तता की तब जाकर दोनों की आपसी नाराज़गी ख़त्म
हुई और फ़िल्म ज्वेल थीफ के गीत 'दिल पुकारे ' से एक बार फिर से दो महान गायकों की युगलबंदी का सिलसिला चल पड़ा |
लता की ज़िन्दगी में वैसे तो कई दिग्गज गायक आये पर किशोर
कुमार का नाम ख़ास काबिले ज़िक्र है ,अपनी
आवाज़ की ख़ुसूसियत के लिए नहीं बल्कि इस बात के लिए कि कैसे उन्होंने लता के
ज़िन्दगी में बड़े हीं मजाकिया अंदाज़ में एंट्री मारी थी ,एक
ऐसी एंट्री जो उन्हें पिटवाते पिटवाते रह गयी थी | इस
मज़ाकिये दास्तान की शुरुआत हुई थी ग्रांट रोड स्टेशन से जहाँ लता अपने गाने की
रिकॉर्डिंग के लिए बॉम्बे टाकीज के स्टूडियो जाने के लिए एक लोकल ट्रेन में सवार
हुई थीं | ट्रेन जब महालक्ष्मी पहुंची तो एक अल्हड़ अलमस्त सा
लड़का उस ट्रेन में चढ़ गया | गले में स्कार्फ ,हाथों में छड़ी और लबों पे मस्ती में सर कोई गीत ,लता
को वो लड़का कुछ लम्पट सा लगा | लता मलाद में उतरीं तो वो
लड़का भी उनके पीछे उतर गया | लता तांगे में बैठीं तो वो लड़का
भी उसी तांगे में बैठ गया |लता के हैरानी की सीमा नहीं रही
जब बॉम्बे टाकिज के पास लता के पीछे पीछे वो लड़का भी उतर गया |अब तो लता को पूरी तरीके से यह यकीन हो चला था कि वह लम्पट लड़का उनका हीं
पीछा कर रहा है | अनहोनी की आशंका से लता के शरीर में
कंपकंपी सी छुट गयी | उन्होंने अपनी रफ़्तार तेज़ कर दी और
लगभग भागती हुई बॉम्बे टाकिज स्टूडियो के अन्दर दाखिल हुई |अन्दर
जाते जाते उन्होंने पीछे मुड़कर एक झलक देखा तो पाया कि वो लड़का अब भी उनके पीछे
पीछे चला आ रहा था | यह देख लता की डर से घिघ्घियाँ बंध गयी |वह भागती हुई अन्दर उस कमरे में पहुंची जहाँ संगीतकार खेमचंद प्रकाश जी
बैठे हुए थे |लता ने घबराते हुए अपने पीछे आ रहे लड़के की तरफ
इशारा करते हुए खेमचंद जी से कहा कि एक गुंडा उनका पीछा कर रहा है | खेमचंद जी ने जब उस लड़के को देखा तो ठहाके मार कर हँसने लगे और जब हंसी
थोड़ी काबू में आई तो उन्होंने लता से बताया कि जिसे वो गुंडा समझ बैठी हैं ,वे दरअसल अशोक कुमार के भाई किशोर कुमार हैं और वहां ‘जिद्दी’ फ़िल्म के लिए एक गीत गाने आये हैं |सारा माज़रा समझ कर लता खुद की बेवकूफ़ी पर हँसे बग़ैर नहीं रह सकी | लता के ऊपर से जब ग़लतफ़हमी का कोहरा छंटा तो खेमचंद प्रकाश जी ने लता और
किशोर का एक दुसरे से परिचय कराया |खेमचंद जी के सौजन्य से
दो दिग्गज गायकों के रिश्ते की शुरुआत हो गयी और फिर वो दिन आया जब दोनों महान
मुतरिबों ने आपस में लयकारी कर फ़िल्म 'जिद्दी' के लिए पहला गीत गाया |गीत का बोल था 'कौन आया रे करके सोलह श्रृंगार '|
लता की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वो दी गयी परिस्थितियों के
अनुसार अपनी आवाज़ को गिरगिट के रंग की तरह बदलना जानती थीं |वो जब बगावत के गाने गाती थीं तो उनकी आवाज़
सरकश हो जाती थी |जब वो देशभक्ति के गाने गाती थीं तो उनकी
आवाज़ सुनने वालों को वतन परस्त बना दिया करती थी | उनके गाये
दर्द भरे नगमें लोगों को रोने को मजबूर कर देते थे और उनके खुशनुमा गीत सुनने
वालों के लबों पर ख़ुशी के फूल खिल दिया करते थे | उनकी आवाज़
के बग़ैर अच्छी से अच्छी धुन और अच्छे से अच्छा गीत बेरूह और बेजान हो जाया करता था
|
कुछ इन्सान ऐसे होते हैं जिनकी ज़िन्दगी को चुनौतियाँ
चलायमान रखती हैं | चुनौतियाँ ख़त्म
होते हीं वे घबराने लगते हैं |लता भी ऐसे हीं इंसानों में से
थीं | उन्होंने जब गायिका के तौर पे अपना पैर जमा लिया तो
उन्हें ज़िन्दगी बड़ी नीरस लगने लगी | और इसलिए नयी चुनौतियाँ
से दो चार करने और ख़ुद की आज़माइश करने के लिए लता ने एक प्रोडक्शन हाउस खोल लिया
और एक मराठी फ़िल्म समेत तीन हिंदी फ़िल्में भी प्रोड्यूस की जिसमें सन 1990 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'लेकिन' ख़ासा चर्चित रही | इस फ़िल्म के निर्देशन का बागडोर
उन्होंने गुलज़ार के हाथ में सौपा था |लता ने संगीत निर्देशन
के क्षेत्र में भी अपना हाथ आजमाया था और कई मराठी गीत रचा था | लता ने अपनी गायकी को केवल हिंदी भाषा की परिसीमा में क़ैद नहीं किया बल्कि
तमिल , तेलगु ,मलयालम ,बंगाली और असमी भाषाओँ को भी अपने खनखनाती आवाज़ का घूँट पिलाया |
लता का गैर फ़िल्मी सफ़र:
लता ने फ़िल्मों गीतों से हट कर भी गायकी की | 1970 की शुरुआत में लता ने ग़ालिब के गजलों
को सुरबद्ध किया था तो उन्होंने सन 1974 के करीब ‘चल वही देश’ नाम के अपने एक एल्बम में अपने संगीतकार
भाई ह्रदय नाथ मंगेशकर की तैयार की गई धुनों पर मीरा बाई के भजनों को भी गाया था |
उन्होंने अपने गाये मराठी लोकगीतों के भी कई एल्बम निकाले और
महाराष्ट्र के प्रसिद्द संत और कवि संत तुकाराम का अभंग भी गाया | लता ने प्रसिद्द ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह के साथ भी गजलों के एक एल्बम में
तरन्नुम का तड़का लगाया | जावेद अख्तर साहब के कलमबद्ध गीतों
को लता ने सन 2007 में अपनी आवाज़ में 'सादगी'
नाम का रंगीला पैरहन पहनाया | लता ने सन 1974
में लन्दन के रोबर्ट अल्बर्ट हॉल से अपने स्टेज शो की भी शुरुआत की |
यह एक चैरिटी शो था जिसका आयोजन किसी नेक मकसद को पूरा करने के लिए
किया गया था | भविष्य में लता ने ऐसे नेक अभिष्टों से भरे कई
चैरिटी शो किये और जब लता मौद्रिक रूप से बेहद मजबूत हो गयीं तो उन्होंने सन 1989
में अपने स्वर्गीय पिता दिनानाथ मंगेशकर के नाम पर पुणे में एक
अस्पताल भी खोला |
28 नवम्बर सन 2012 में
लता ने एल एम म्यूजिक नाम की अपनी एक म्यूजिक कंपनी खोल अपने इस बैनर के तले भजन
के एल्बम को प्रकशित करने के सिलसिले की भी शुरुआत कर दी है जिसमें उन्होंने और
उनकी बहन उषा ने अपने आवाज़ का योगदान दिया है |
लता को मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान :
लता ने अपनी गायकी से दुनिया की निगाहों में भारत का कद और
भी बड़ा कर दिया था |दुनिया जो अब तक
भारत को ताजमहल के देश के रूप में जानती थी ,नट नटेरों ,सांप ,सपेरों मुनि ,मनस्वियों
के देश के रूप में जानती थी अब इसे उस देश के रूप में भी जानने लगी थी जहां लता
नाम की कोकिला रहती है |और इसलिए हिन्दुस्तान ने मान बढ़ाने
वाली अपनी बेटी को अपने अंदाज़ में शुक्रिया कहते हुए सन 2001 में लता को भारत के सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया |
लता ने जिस तरह हिंदुस्तान के हर लोगों पर अपनी स्वर सुधा
बरसाई थी ,लोगों के बीच लता
को सम्मानित करने की एक होड़ सी लग गयी थी |एक भारतीय डायमंड
कंपनी अडोरा ने लता को अपने स्वरांजलि नाम के जेवर के ब्रांड से रब्त किया तो
परफ्यूम बनाने वाली फ्रांस की एक मशहूर कंपनी वोल्ट ने लता औ दे परफ्यूम नाम की एक
परफ्यूम बाज़ार में लॉन्च कर दी |मध्यप्रदेश सरकार तो दो क़दम
और आगे निकली और सन 1984 में इसने संगीत के क्षेत्र में
योगदान देने वाले लोगों को पुरस्कृत करने के लिए लता मंगेशकर के नाम पर लता
मंगेशकर पुरस्कार की परिपाटी शुरू कर दी | ठीक इसी तरह का
कारनामा महाराष्ट्र सरकार ने भी किया | इसने भी लता के
सम्मान में सर्वश्रेष्ठ गायकों को लता मंगेशकर पुरस्कार से पुरस्कृत करने की एक
चलन चला दी |
लता ने अपने 70 साल
के करियर में 36 भाषाओँ में 1000 से
अधिक फ़िल्मों के लिए 50 हज़ार से भी ज़्यादा गाने गाये हैं |
गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में लता के नाम सन 1948 से सन 1991 तक सबसे ज़्यादा गाने (25000 से भी ज़्यादा) रिकॉर्डिंग करने का विश्व कीर्तिमान दर्ज़ था |बाद में इस कीर्तिमान को उनकी हीं बहन आशा भोसले ने तोड़ दिया |लता के गाये अथाह गानों ,उसके पीछे छिपे दास्तानों ,लता की उपलब्धियों और पुरस्कारों को अल्फाज़ी आशियाने में समेटना नामुमकिन
है पर फिर भी एक नज़र लता द्वारा जीते गए प्रमुख पुरस्कारों की एक सूचि पर :
फ़िल्म फेयर अवार्ड:
1958 - आजा रे परदेसी [फ़िल्म मधुमती ] 1962
- कही दीप जले कहीं दिल [बीस साल बाद ] 1965 - तुम्ही मेरे मंदिर तुम्ही मेरी पूजा [खानदान ] 1969 - आप मुझे अच्छे लगने लगे [जीने की राह ] 1993 : फ़िल्म
फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड 1994 : फ़िल्म फेयर स्पेशल
अवार्ड ( दीदी तेरा देवर दीवाना -फ़िल्म हम आपके हैं कौन )
फ़िल्म फेयर द्वारा गानों को पुरस्कृत करने की परिपाटी की
शुरुआत हुई थी सन 1956 में जब फ़िल्म
चोरी चोरी के गीत 'रसिक बलमा ' को
सर्वश्रेष्ठ गीत का पुरस्कार दिया गया था | लता ने इस
पुरस्कार समारोह में गाने से मना कर दिया था क्योंकि उस वक़्त फ़िल्म फेयर वालों ने
गायकी के लिए किसी किस्म के पुरस्कार की कोई अभिव्यंजना नहीं की थी | लता के विरोध ने फ़िल्म फेयर वालों का ज्ञानचक्षु खोला और सन 1958 से उन्होंने प्लेबैक सिंगिंग केटेगरी को भी पुरस्कारों के फेहरिश्त में
शामिल कर दिया | इस केटेगरी की शुरुआत क्या हुई,लता ने तड़ातड़ चार चार फ़िल्म फेयर पुरस्कार अपनी झोली में कर लिया |
उस दौर में लता और आशा दोनों मेधावी बहनों ने फ़िल्म फेयर पुरस्कार
और कई अन्य पुरस्कारों पर अपनी काबिलियत के दम पर इस क़दर एकाधिकार स्थापित कर लिया
था कि इंडस्ट्री की बाकि गायिकाओं ने लता और आशा के जलवे के आगे नतमस्तक हो
पुरस्कार जीतने के सपने देखने बंद कर दिए थे| लता को जब इस
बात का अहसास हुआ तो उन्होंने दरिया दिली दिखाते हुए,अन्य
गायिकाओं को प्रोत्साहित करने के मद्दे-नज़र फ़िल्म फेयर अवार्ड से बेस्ट फीमेल
प्लेबैक सिंगिंग केटेगरी में सदा के लिए अपने गीतों का नामांकन का सिलसिला रुकवा
दिया | इस घटना ने साबित कर दिया कि लता गायकी में हीं नहीं
बल्कि दरिया दिली में भी बेमिसाल थी |
नेशनल फिल्म अवार्ड:
1972 - फ़िल्म परिचय - बीती न बितायी रैना गीत के लिए बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर
अवार्ड |
1975 - फ़िल्म कोरा कागज़ - गीत रूठे रूठे पिया के लिए बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर अवार्ड |
1990 - फ़िल्म लेकिन - गीत यारा सिली सिली के लिए बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर अवार्ड |
1975 - फ़िल्म कोरा कागज़ - गीत रूठे रूठे पिया के लिए बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर अवार्ड |
1990 - फ़िल्म लेकिन - गीत यारा सिली सिली के लिए बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर अवार्ड |
लेकिन- बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर |
सरकार द्वारा नियोजित पुरस्कार :
1969 - पद्म भूषण
1989 - दादा साहेब फाल्के अवार्ड 1999 - पद्म विभूषण
2001 - भारत रत्ना 2008 - भारतीय स्वतंत्रता के 60 वीं वर्षगाँठ के उपलप्क्ष पे लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड |
1969 - पद्म भूषण
1989 - दादा साहेब फाल्के अवार्ड 1999 - पद्म विभूषण
2001 - भारत रत्ना 2008 - भारतीय स्वतंत्रता के 60 वीं वर्षगाँठ के उपलप्क्ष पे लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड |
लता को नीचे वर्णित विश्व विद्यालयों द्वारा डॉकट्रेट की
मानद उपाधि भी दी गयी :
महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ़ बड़ोदा,
शिवाजी यूनिवर्सिटी , कोल्हापुर
पुणे यूनिवर्सिटी,
खैरागढ़ म्यूजिक यूनिवर्सिटी,
हैदराबाद यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी,
बड़ोदा यूनिवर्सिटी |
शिवाजी यूनिवर्सिटी , कोल्हापुर
पुणे यूनिवर्सिटी,
खैरागढ़ म्यूजिक यूनिवर्सिटी,
हैदराबाद यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी,
बड़ोदा यूनिवर्सिटी |
लता और आशा का रिश्ता :
पत्थर उन्हीं पेड़ों को मारा जाता है जो मीठे फलों से लदे
होते हैं ,बबुल के पेड़ पर कोई
पत्थर नहीं मारता | लता मंगेशकर पर भी आलोचनाओं के पत्थर ख़ूब
फेंके जाते थे क्योंकि लता खूबियों के रस-शिक्त फलों से लदी हुई थी | लता पर अपने उस बहन आशा के प्रति जलन का भाव रखने का आरोप लगाया गया जिनकी
नगमासराई लता की गायकी की हीं तरह बेहद प्रभावशाली है | आरोप
लगाने वाले भूल गए कि वो लता हीं थी जिन्होंने पिता के मरने के बाद 13 साल की कच्ची उम्र में आशा और बाकि भाई बहनों की जिम्मेदारियां अपने
कन्धों पर उठा ली थीं| आशा को मुंबई साथ लाने वाली लता हीं
थी,उनका फ़िल्मों से सारोकार जोड़ने वाली लता हीं थी | आशा ने जब सोलह साल की नादानी भरी उम्र में अपने से 15 साल बड़े, अपने लालची और मतलब परस्त पड़ोसी गणपत राव
भोसले से शादी कर खुद को तकलीफ़ के आंच में झोंक दिया था तो उन्हें उनके बच्चों
समेत उस यात्नापरक स्थिति से उबारकर सीने से लगाने वाली लता हीं थी | लता पर इलज़ाम मढने वाले इस बात से गाफ़िल हैं कि अगर दोनों बहनें आपस में
रश्क रखतीं तो दोनों बहनें आज भी मुंबई के पेद्दार रोड के एक घर में साथ साथ इतनी
मुहब्बतदारी से नहीं रह रहीं होतीं| हर वो मुमकिन मुकाम ,हर वो ऊँची बुलंदियां जहाँ ख्यालात पहुँच सकते हैं ,दोनों
बहने एक दुसरे का हाथ थामें टाप आई हैं | दोनों ने शोहरत का
आसमान आधा आधा बाँट लिया है |क्यों रखेंगी रश्क दोनों बहने
आपस में ?दोनों को हासिल करने के लिए अब क्या बांकि रह गया
है?
लता मंगेशकर से सम्बंधित कुछ अतरंगी और अमालूम तथ्य :
लता कुत्ते पालने की बड़ी शौक़ीन है और उन्होंने अपने घर में
नौ नौ कुत्ते पाल रखे हैं |
लता एक बेहतरीन ख़ानसामा भी हैं | उनके बनाये धनिया मटन का तो ज़वाब हीं नहीं |
उनकी पाककला को माहिर बनाने में कैफ़ी आज़मी साहब की पत्नी का बड़ा
योगदान था|
लता का परिवार खुशहाल संयुक्त परिवार का बेमिसाल उदाहरण है | लता के सभी भाई बहन और उनके बच्चे पेद्दार
रोड के निवास स्थान में बड़ा हिल मिल कर रहते हैं |आज भी
डाइनिंग टेबल पर यह परिवार साथ बैठकर खाता है |लता और उनका
संयुक्त परिवार सिर्फ खाने के टेबल पर हीं नहीं बल्कि घुमने फिरने में भी एक दुसरे
का बखूबी साथ देते हैं | ये लोग साथ साथ दुनिया के कई दूर
दराज़ देशों में घूम आये हैं |लता को लॉस वेगास में गेमिंग
मशीन पर घंटो गुज़ारना बहुत भाता है |ये वो लम्हा होता है जब
लता एक चुलबुली सी बच्ची बन जाती हैं |
लता के बचपन की चुलबुलाहट और शरारत का एक किस्सा बड़ा मजेदार
है|लता जब सिर्फ पांच साल की थी ,उन्होंने दो आने के नकली सिक्के का इतेमाल कर एक दूकानदार को बेवकूफ़ बनाया
था और उस नकली सिक्के के एवज़ में अपनी मनपसंद चीजें खरीदी थी| लता के नौकर ने जब लता को नकली पैसे का इस्तेमाल कर चीजें खरीदते देखा तो
उसने भी लता का हथकंडा अपनाया और पहुँच गया नकली दो आने ले दुकान पर ,पर बेचारा लता जैसी चालाकी नहीं दिखा पाया और अपनी घबराहट से नकली पैसे का
राज खोल गया| फिर तो दुकानदार ने उस बेचारे को वो डांट पिलाई
कि पूछिए मत |
लता की स्कूली शिक्षा का जीवन काल सिर्फ एक दिन का रहा| 5 साल की लता जब पहली बार स्कूल गयी तो वो
टीचर की ग़ैरहाज़िरी में टीचर बन अपने कक्षा के बच्चों को संगीत सीखाने लगीं |
टीचर ने लता को जब ऐसा करते देखा तो उन्होंने लता को ख़ूब डांट पिलाई
| पर वह डांट लता को ऐसी नागवार गुजरी कि उस दिन से उन्होंने
स्कूल जाना छोड़ दिया| पिता दीनानाथ उन्हें अगर ज़बरदस्ती
स्कूल भेजने की कोशिश करते तो वह रोते रोते सर आसमान पर उठा लेतीं |लता के पिता दीनानाथ मंगेशकर ने जब देखा कि उनकी बेटी का स्कूल जाने का
बिलकुल मन नहीं ,उनका मन तो सिर्फ संगीत में रमा है तो
उन्होंने लता को घर में हीं संगीत के साथ साथ अकादमिक विषयों की भी शिक्षा देनी
शुरू कर दी |
मशहूर तमिल अदाकार और प्रोड्यूसर शिवा गणेशन लता के राखी
भाई थे|1950 के दशक में
लता ने शिवा गणेशन के लिए कई गाने गए पर संयोग ऐसा था कि दोनों की कभी मुलाकात
नहीं हो पायी | एक दिन लता का मन हुआ कि वो उस शिव गणेशन को
देखे जो उनके लिए गानों के कई मौके पैदा कर रहा है |मुंबई के
औरोरा थिएटर में उन दिनों शिव गणेशन की एक फ़िल्म चल रही थी जिसका नाम था पावा
मंनिप्पू | शिव गणेशन को देखने का हसरत लिए लता औरोरा थिएटर
पहुँच गयी |जब उन्होंने फ़िल्म पावा मंनिप्पू में शिव गणेशन
को चेहरा मोहरा ,अदाकारी का अंदाज़ देखा तो उन्हें ऐसा लगा
जैसे वो शिव गणेशन को नहीं , अपने पिता स्वर्गीय दीनानाथ
मंगेशकर को देख रही हैं | लता शिव गणेशन को देख इस कदर भाव
विह्वल हुईं कि दूसरे हीं दिन उन्होंने चेन्नई का जहाज़ पकड़ा और पहुँच गयी शिव
गणेशन के घर |शिव गणेशन ने लता की ख़ूब आवभगत की और उस दिन से
दोनों भाई बहन के रिश्ते में बंध गए और बड़ी शिद्दत से इस रिश्ते को ताज़िन्दगी
निभाते रहे |
मराठी में बड़ी बहन को ताई कहते हैं |लता सिर्फ शिव गणेशन की ताई हीं नहीं बनी
बल्कि उन्होंने तो सारी दुनिया से ताई का ख़िताब पा लिया | सचिन
तेंदुलकर सरीखे लीजेंड भी अगर उन्हें ताई कहते हैं तो इसके पीछे वज़ह है लता की
अपनत्व भरी शख़्सियत और मजबूत पारिवारिक मुल्य | लता की
परमार्थता,उनके त्याग का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि
उन्होंने अपने परिवार की जिम्मेदारी भली भांति से निभाने के लिए कभी शादी नहीं की |लता ने 13 साल की उम्र से हीं अपने परिवार की
संरक्षिका बन अपने छोटे भाई बहनों की देखभाल की और आज 84 साल
की उम्र में भी वो अपने परिवार का मजबूत स्तम्भ बनी हुई हैं| लता के परिवार में सिर्फ खून के रिश्तों से जुड़े लोग नहीं बल्कि हर वो लोग
हैं जो लता मंगेशकर को सच्ची आत्मीयता के भाव से ताई कहते हैं | वो लोग जो लता मंगेशकर नाम की अहमियत समझते हैं ,यह
मुसलसल दुआ करते हैं कि लता ताई का स्नेहिल साया उनके सिर पर सदैव बना रहे और ऐसे
लोगों से सारा हिन्दुस्तान पटा पड़ा है ,इतनी हरदिल अजीज़ हैं
लता |
-पवन कुमार ।
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