Monday, 10 September 2018

पाखण्डपना

मित्रों आप सभी मेरी ज़िंदगी का शदीद और प्यारा हिस्सा हैं क्योंकि आप हीं हैं जिनसे मैं अपने अंदर कुलबुलाते विचारों का बोझ साझा करता हूँ।आपमें मुझमें मतभिन्नता हो सकती है पर आपसी स्नेह में कोई कमी नहीं होगी ,इसकी आश्वासता है और उम्मीद भी ।मैं जिस सोंच की वक़ालत करूं,ज़रूरी नहीं कि वह सही हो ।मैं भी ख़ामियों का पुतला हूँ।अतएव बेधड़क अपने विचार रखिये ।बस भाषा संयम बरतने की गुज़ारिश है।
यहाँ मैं अपनी निम्नलिखित कविता के बारे में दो बातें स्पष्ट करना चाहूंगा ।
पहली बात कि मैं ईश्वर पर गहरी आस्था रखता हूँ पर उस ईश्वर पर नहीं जो आदमी द्वारा सुगम,सुभोग्य ,स्वार्थपरक रूप में परिभाषित है ।वह ईश्वर नहीं जिससे मिथ्या क्षेपक और भ्रामक कर्मकांड जुड़ गए हैं।मेरी ईश्वरीय आस्था भयजनित या पुरस्कार की प्रत्याशा से पैदा हुई नहीं बल्कि प्रेमजनित है ।मैं मुरीद हूँ उस शक्ति का जिसके दिये ताल पर करोड़ों ,अरबों चीजें थिरकती हैं।
दूसरी बात-
इसे नकारा नहीं जा सकता कि सेक्स छदम रूप में हीं सही हमारे जीवन का सारथी रहा है ।

एक ईमानदार सच यह भी है कि हममें से कई voyeuristic species हैं,एक peeping tom हैं जिन्हें छुप छुप कर रंगीन किताबों के पन्ने पलट,मोबाइल पर फ़हाश सिनेमा देख, विपरीत लिंगियों को लोलुप नज़रों से निहार सेक्स का गुपचुप रसास्वादन करना अच्छा लगता है।फ़िर यह 'मैं पवित्र हूँ ,तुम निकृष्ट हो'(holier than thou)वाला रवैया क्यों?
क्यों न हम सबसे पहले अपने गिरेबां में झांककर ख़ुद को दुरुस्त करें !ख़ुद के अंदर शब्दों की आडम्बरी शीलता के नीचे छिपे पापी को मारें !

कविता:पाखण्डपना
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 8th Sept 2018.

जहाँ होली के रूप में 
मदनोत्सव रंगीला प्रश्रय पाये;

जहाँ पुत्रीगामी सृष्टिकर्ता की
पदवी पाए ;

जहाँ मिथकों के नायक 
जारकर्म से उत्पन्न हों;

जहां ऋषि की भार्या का
मानमर्दन करने वाला इंद्र
पूजनीय हो ;

जहाँ कृष्ण और गोपियों की 
रति क्रिया को प्रमुदित भाव से
श्लोकबद्ध किया गया हो ;

जहाँ लिंग को दुग्धस्नान 
कराया जाता हो;

जहाँ वात्स्यायन की लेखनी
स्याही नहीं वीर्य संखलित
करती हो;

जहाँ की गुह-भित्तियां 
नाना प्रकार की 
कामरत मूर्तियों से पटी हों ;

वहाँ लोगों द्वारा 
नैतिकता का
राग अलापना 
सदी का सबसे बड़ा 
पाखण्डपना लगता है।

-पवन कुमार ।

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