Sunday, 23 September 2018

लघु कथा:मैं ना लेता टिकट
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बात पुरानी है।तब दिल्ली की सड़कों पर ब्लू लाइन के नाम से प्राइवेट बसें दौड़ा करती थीं।ऐसी हीं एक बस का कंडक्टर था सुखराम जिसे पेट की आग उसके सीधे सादे ग्रामीण माहौल से खींचकर आपाधापी भरी दिल्ली ले आई थी और किस्मत ने जिसे उस बस का कंडक्टर बना दिया था।उस दिन सुखराम हमेंशा की तरह अपने यांत्रिकी अंदाज़ में यात्रियों को टेर दे रहा था-'ओय खानपुर,मदनगीर,साकेत,चिराग दिल्ली ।'

बहुत लोगों की भीड़ में एक राजपाल नाम का किशोर भी उस बस में सवार हुआ।उसके चाल में अक्खड़पन था,चेहरे पर नौजवानी की मगरूरियत काबिज़ थी।टिकट मांगता सुखराम उस किशोर से मुखातिब हुआ-'टिकट बोलिये भाई टिकट बोलिये।'
'टिकट' राजपाल ने सुखराम के इसरार का मजाक उड़ाते हुए कहा।
'काहे मजाक कर रहे हैं ? टिकट बोलिये न ?'
'तमने बेड़ा ना है।टिकट तो बोला।इब नाच के बोलूं कै ?'
'हमरा मतलब है बस पे चढ़ने का टिकट लीजिये भाई।'
'मैं ना लेता टिकट।'
'काहे भैया,आप टिकट काहे नहीं लोगे?'
'स्टाफ शूं ।'
'काहे का स्टाफ ?'
'भगत सिंह कॉलेज का।'
'टिकट तो आपको लेना पड़ेगा ।'

कंडक्टर सुखराम की इस बात ने राजपाल को भड़का दिया।उसने त्योरियां चढ़ाते हुए कहा-'रे बावड़ी पूँछ म्हारे से टिकट लेगा तू?अपने कॉलेज के स्टूडेंट यूनियन का सेकेट्री हूँ मैं । 2 मिनट में 10 छोरे लावुंगा और तेरा और तेरे बस का काण्ड कर दूंगा।'
'आपका कपड़ा लत्ता देखकर पता चलता है कि आप अच्छे घर से हैं ।2-4 रुपया आपके लिए मायने नहीं रखता होगा ।पर हमरे लिए मायने रखता है । 50-100 रुपया तो आप डेली कॉलेज में सिगरेट समोसा में खरच देते होंगे। अगर 5 रुपया का टिकट ले लीजियेगा तो क्या हो जाएगा?'
'रे तू न समझेगा ।ये इज्जत की बात होवे सै।मैं भगतसिंह कॉलेज के स्टूडेंट यूनियन का सेकेट्री होकर टिकट लूंगा तो घना बेइज्जती हो जावेगी म्हारी।'
सुखराम ने इसरार करना नहीं छोड़ा'भाई प्लीज टिकट ले लीजिये ।'
'रे कान के नीचे रपेट मारूँगा जिब पल्ले पड़ेगी बात तेरे ।घना टिकट टिकट लगा रखा है।'
राजपाल का यह उग्र तेवर देख सुखराम डर गया ।उसने राजपाल से टिकट मांगने की ज़िद बन्द कर दी।नाकामयाबी और बेइज्जती का कड़वा घूंट वह किसी तरह अपने अंदर उतार हीं रहा था कि तभी उसकी जेब में पड़ा मोबाइल बज उठा।सुखराम ने वह कॉल रिसीव किया।दूसरी तरफ उसका 7 वर्षीय बेटा था जो न जाने कितने दिनों से लंबित अपनी मांग को फिर एक दफ़ा अपने पिता के सामने रखते हुए कह रहा था'पापा आज आप हमारे लिए खिलौने ले कर आइयेगा न?
बेटे की इस मांग पर सुखराम खिन्ना उठा'तुम कोई राजा भोज के बेटा नहीं हो कि फटाफट सब हाज़िर ।जैसे फटलका पैंट और शर्ट पहनके स्कूल जाते हो ,जैसे रद्दी वाले से किताब खरीद कर पढ़ते हो वैसे हीं किसी का माँगा चांगा टुटलका खिलौना से खेल लो।हम नहीं ला पाएंगे तुम्हारे लिए खिलौना ।'
यह कहकर सुखराम ने फ़ोन काट दिया और खुद से बुदबुदाता हुआ कहने लगा-'बड़ा आए लाट साहब के औलाद ,खिलौना से खेलेंगे ।'
राजपाल जो यह सब देख सुन रहा था,अपनी गलती का अहसास करते हुए उसने अपनी जेब से पैसे निकाले और सुखराम को देते हुए कहा-'एक चिराग दिल्ली का टिकट दियो भाई ।'
-पवन कुमार श्रीवास्तव की मौलिक रचना।

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