मेरी कलम के पांव जो एक दिन में मीलों की मसाफ़त तय किया करते थे,ख़्यालों की देखी-अनदेखी विशाल ज़मीन को लांघा करते थे ,पिछले कुछ दिनों से एक हीं ज़गह पर मुंजमिद हो गए थे।वज़ह,कोई बेहद अज़ीज़,बेहद ख़ास आया हुआ था जिसने मेरे ख़्यालों पर अस्थाई आधिपत्य जमा लिया था ।पर वह हवा के एक ख़ुशगवार झोंके की तरह आया और मुख़्तसर सा साथ बिता चला गया और पीछे छोड़ गया बिछोह की बेचैनी।अब चूंकि वह जा चुका है,मैंने अपने दारू-ए-अलाम कलम को फ़िर से थाम लिया है।पर आज यह कविता मैंने नहीं लिखी,उसने लिखवाई है।
कविता:काश तुम न आते!
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 24th Aug 2018.
सावन बड़ा नमनाक
मौसम होता है,
आंसू और बारिश
एक दूसरे में ऐसे गुथ जाते हैं
कि उनके बीच का सारा भेद
मिट सा जाता है और
दर्द अनाथ सा रह जाता है,
उसे कोई समझ नहीं पाता
और तुम ऐसे मौसम में
मुझे छोड़कर चले गए हो!
अब जबकि तुम चले गए हो
मैं बारिश से घट भर रखे
उस कजली वर्णी पौधे
से पूछूंगा कि क्या उसने
कोई सूखा बदरोटी पत्ता
अपनी कांख में अटका
रखा है जिसमें गुज़िश्ता लम्हों
ने तुम्हारा नाम लिख रखा हो;
मैं अपने काई लगे
पिच्छल प्रांगण में
जानबूझ कर फिसलूंगा
यह देखने के लिए कि
क्या ऐसे फिसलकर
वापस अतीत के उस
सुखमयी धरातल में
गिरा जा सकता है
जब तुम साथ थे;
मैं अपनी बालकॉनी में खड़ा
बड़ा तन्मय हो बारिश की
झिरझिर सुनूंगा,
क्या पता उसमें
माज़ी की हमारी
कोई ख़ुशगप्पीयां छुपी हों;
या शायद मैं बाहर
खुले में निकल जाऊंगा
और कर लूंगा ख़ुद को
पावस की बूंदों से सराबोर,
क्या पता कोई क़तरा
उस बादल से गिरा हो
जिसने तुम्हारे गांव में कभी
पड़ाव डाला था;
तुम्हारे जाने के बाद
बहुत कुछ पुराना
बदल सा गया है,
वो नज़ारे जो
कलतलक मेरे अंदर
सुकूत जगाया करते थे
अब मेरे दर्द को
मुखर कर रहे हैं,
मिसालन ज़मीन पर
मेढ़क सी उछलती बूंदें
जो कलतलक मुझे
धमा-चौकड़ी मचाते
बच्चे की मानिंद लगती थीं,
अब किसी गर्म तवे पर
बदइत्तिफ़ाकन गिरी
जल-बूंदे सी लगती हैं;
आसमान में उगी
बिजली की चौंध
जो कलतलक मुझे
सुख के सुनहरे हर्फ़
जैसी लगती थी अब
बहिश्त को जलाती
आग सी लगती है;
अब रात अनमनी सी ,
अब दिन बेलौस सा
लगता है ;
इतनी बड़ी कीमत
तुम्हारे आने की !
काश तुम न आते !
-पवन कुमार।
चित्र साभार- गूगल

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