Wednesday, 29 August 2018

सुनो सरकार

विषधर सत्ता चुन रही है एक एक कर रैय्यत,
आज इसकी,कल उसकी उठ रही है मैय्यत ।
चित्र साभार- गूगल 

आजकल अख़बार की सुर्खियों पर दृष्टिपात करते हीं अपने इंसान होने पर ग्लानि होने लगती है।ऐसा लगने लगता है मानों जीने के एवज़ में हम सरकार की तिजौरी में अपनी आज़ादी ,अपनी वैचारिकता को गिरवी रखने के लिए बाध्य किये गए मांस के लोथड़े भर रह गए हैं ।महज़ वो पुतले रह गए हैं जिनके नफ़स की डोर हुक्मरानों के हाथ में है ।
कलम क़फ़स में बंद की जा रही है।अभिव्यक्ति की आज़ादी का सरेआम हनन किया जा रहा है ।
राजनीति का स्तर रसातल में चला गया है।
यह सर्वविदित है कि सरकार ,चाहे वह किसी भी पार्टी की हो,को हक़ और हुक़ूक़ के लिए उठी आवाज़ नहीं भाती और वह उस आवाज़ को दबाने के लिए किसी भी हद तक गिरती रही है।सरकार उन लोगों से निज़ात पाने के लिए मक्कारी भरी सियासी चाल चलती रही है जो सरकार के समक्ष अपनी कलम से चुनौतियां पैदा करते रहे हैं।
सरकार किसी भी पार्टी की हो,मुझे उनसे घिन होने लगी है ।सब एक हीं थाली के चट्टे बट्टे हैं।उन्हें सत्ताच्युत होते हीं ग़रीब-गुरबों की याद आने लगती है और इनके सत्ता पर आसीन होते हीं ये ग़रीब-गुरबे इनके ज़ेहन से ऐसे ग़ायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।बल्कि ये सत्ताधारी ग़रीबों के अस्थि-मेरु पर विराजमान हो अपना क़द बुलंद करते हैं।धिक्कार है राजनीति की इस मानवताहंता परिपाटी पर ।
सुनो सरकार
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 29th Aug 2018.

सुनो सरकार!
क्या सही जुगत लगाई है तुमने
सरकश आवाज़ को घोंटने की,
तुम तो ख़ुद को शाबाशी दे दो;
पर कलम के चारों ओर
ये कैक्टस उगाने से क्या होगा!
ऐसा करो कलम को फांसी दे दो;

ये कलम बड़ी बेहया चीज है,
दमित होकर भी 
जब तक ज़िंदा रहेगी 
सच उगलती रहेगी;
इंसाफ़ अगर उत्तंग पहाड़ पे भी
बैठा है तो क्या!
यह निरन्तर उसकी ओर
चलती रहेगी;

यह करती रहेगी
तुम्हारी करतूतों को फाश,
यह भरती रहेगी
लोगों में उम्मीद का उजास;

इसे रौंद डालो
निरंकुशता के भारी-भरकम
बूटों तले,
बंद कर दो 
हर वो आंखें जिसमें इंसाफ़ का 
ख़्वाब पले;

सुनो सरकार
कोई जिये या मरे,
तुम्हें क्या!
तुम तो 
भूखों की अंतड़ियों पर
अपने सिंहासन के 
पाये पैवस्त कर
जमे रहो;

बाकी दुनिया 
तरक्की की राह पर
अग्रसर हो तो क्या!
तुम तो मुल्क की 
लगाम पकड़े 
पिछड़ेपन की ज़मीं पर
थमे रहो;

कलम ने कुदिनभोगियों
के साथ साज़िश रची है,
भूख़ के ख़िलाफ़ 
बग़ावत करने की,
उन्हें इस हिमाक़त की
सज़ा दो;

ऐसा करो 
इस ढीठ कलम को 
दिन के उजाले में
भीड़ से भरे चौराहे पर
सलीब पर
चढ़ा दो ;

न होगी सत्यवादी कलम,
न होगी स्याही,
न कभी ललकारी जाएगी
तुम्हारी मसीहाई।

-पवन कुमार।

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