Wednesday, 24 October 2018


                                                                   चित्र:साभार गूगल



मैंने पहले भी कहा था 'मी टू'
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 21st Oct 2018.

ए औरत!
इस बात का पुख़्ता सबूत दो
कि तुम 'मी टू' हो।

जाओ अतीत के गर्भ से
वो लम्हा निकाल लाओ
जब तुमसे साक्षात्कार में
पूछा गया था कि क्या तुम
कंपनी के हक़ में
क्लाइंट के साथ
डिनर मीट पर जा सकती हो?
इस चालाक जुमले में छिपे
सच को अगर नंगा कर बोला जाय
तो क्या तुम क्लाइंट के साथ
फ़्लर्ट कर कम्पनी का टर्नओवर
बढ़ा सकती हो ?
और तुमने नौ ज़गह 'ना' कही
पर दसवीं ज़गह 'हाँ' कह दी
क्योंकि तुम्हारे खीसे में
न सब्र बचा था न सिक्का ;

लाओ वो लम्हे जब
तुम्हारा कबूतरों को
फांसने वाले दाने के रूप में
इस्तेमाल किया गया था;

जब तुम्हारा अप्रैज़ल
तुम्हारी प्रतिभा नहीं बल्कि
तुम्हारी सहज उपलब्धता के
आधार पर किया गया था;

जब तुमसे कहा गया था कि
तरक्की का रास्ता बॉस के
अधोअंग से होकर जाता है;

जब प्रशंसा की आड़ में
पुरुषों ने तुमपर वासनामयी
मवाद उगले थे;

और कहाँ थी तुम अब तक?
क्यों नहीं कहा पहले 'मी टू'?

क्या कहा,
तुमने पहले भी कहा था 'मी टू'
अपनी अँखियों की पनीली कोर से,
अपनी सिसकियों से ,
अपने ज़िस्म पर जमे रक्त के थक्कों से,
अपने मन के खराशों से,
अपने तन के खरोचों से,
पर हम इसे सुन नहीं पाए थे;

क्योंकि हम व्यस्त थे
अपनी मर्दानगी थोपने में,
अपने पुरुषत्व का साम्राज्य बसाने में,
या फ़िर किसी की 'मी टू' को दबाने में ;

क्या बकवास करती हो !

-पवन कुमार।

Tuesday, 16 October 2018

चित्र साभार:गूगल 


उसे टैड्डी बीयर चाहिए था
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 14th Oct 2018.

वह ग्यारह साल की एक बेहद गऱीब,मंद बुद्धि और गूंगी लड़की थी पर उसकी हसरत न गूंगी थी,न गऱीब जो उससे हरदम टैड्डी बीयर मांगती रहती थी।

उस गूंगी लड़की ने अपनी माँ की मालकिन के घर एक मासूम मख़मली सा टैड्डी बीयर देखा था।यह टैड्डी बीयर की हीं लालसा थी जो वह रोज़ अपनी काम पर जाती माँ के साथ चिपक लिया करती थी।

यह टैड्डी बीयर हीं था जिसे पाने की लोभ में उसने किसी बदजात के दिये अंजाने दर्द को अपने कोख में छिपा लिया था।अब वह दर्द धीरे धीरे आकार लेने लगा था पर दुनिया उसे कुपोषण से फूला पेट समझती रही।कैसी विडम्बना है कि भूख से पेट कभी गड्ढ सा बन जाता है तो कभी फूल भी जाता है।

एक दिन उसने सबको चौंकाते हुए अपनी कोख से किसी का पाप उगल दिया।अब वह उस अल्पायु में एक सुगबुगाती ज़िन्दगी को अपनी छाती से चिपकाये रहती थी।गूंगी लड़की को अब भी टैड्डी बीयर चाहिए था,मासूम मख़मली सा टैड्डी बीयर।

चूंकि अल्पवयता के कारण गूंगी लड़की की अर्धमुकुलित छाती में दूध नहीं उतरता था,गूंगी लड़की की ग़रीब माँ किसी तरह बच्चे के दूध का इंतज़ाम कर बच्चे का जीवन रथ आगे बढ़ा रही थी।

एक दिन गऱीबी जनित परिस्थितियों ने उस गूंगी लड़की की माँ को लील लिया।पालक माँ का साया क्या छिना ,गूंगी लड़की अपने बच्चे के साथ फूटपाथ पर आ गई ।उस दिन लोगों की दी हुई जूठन,कूठन से गूंगी लड़की का तो किसी तरह गुज़ारा हुआ पर सिर्फ़ दूध पर आश्रित उसका बच्चा दूध की अनुपलब्धता में भूख से बेहाल हो रात भर रोता रहा ।अगली सुबह सब शांत था....बच्चे का रुदन,गूंगी लड़की की खामोश बेचैनी सब।गूंगी लड़की का बच्चा फुटपाथ पर निस्पंद पड़ा था और पास में गूंगी लड़की सीने से एक टैड्डी बीयर चिपकाए बैठी थी ।शायद कोई उदारमना उसके बच्चे के लिए टैड्डी बीयर छोड़ गया था,मासूम मख़मली सा टैड्डी बीयर।

-पवन कुमार।


Wednesday, 10 October 2018




भूत का निर्णय
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 10th Oct 2018.

गांव के अत्यंत हीं सम्पन्न और प्रभुत्वशाली व्यक्ति हरिहर बाबू के यहाँ ससुराल से लौटी उनकी नवविवाहिता बेटी का स्वर्णहार चोरी क्या हुआ,घर बाहर सर्वत्र हंगामा मच गया।

पान की गुंगटी पर इकट्ठी भीड़ जो कल तक देश के हालात पर,मौज़ूदा राजनीति पर मुबाहिसा किया करती थी ,अब सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वर्णहार की चोरी की बातें कर रही थी।पान पर पान चुभलाया जा रहा था और सारी संभवनाओं को खंगाला जा रहा था।बात कहीं पर अटक जाती तो पान की चुभलाहट में मुखइन्द्रियों को व्यस्त रखने वाला कोई अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति पान की पीक फेंककर अस्फुट स्वर में बोलना छोड़ एक नये दम के साथ नई तक़रीर रखता और बाकी के लोग उस तक़रीर में उलझ जाते।

'हरिहर बाबू के दामाद के चाचा पुलिस में आला अधिकारी हैं।सुने हैं उ खोजी कुत्ता लेकर आने वाले हैं,चोर का पता लगाने।'

किसी ने ऐसा कहा तो कोई इस बात के ख़िलाफ़ यह प्रतिकारी दलील लेकर खड़ा हो गया -'ई तो बहुत बचकाना क़दम है भाई।कुत्ता का क्या है,रोटी से लेकर कुत्तिया किसी के भी पीछे कहीं घुस जाए।ललना चम्पिया पाले हुए है, कल को उ खोजी कुत्ता उ कुतिया के महक से खिंच कर ललना के घर घुस गया तो का ललना चोर हो जाएगा?' 

पास खड़े ललन ने यह बात सुनी तो मारे घबराहट के थूक सटकने लगा।

हरिहर बाबू के संभावित कदम के बारे में बहुत बातें हुईं पर जो दरअसल हुआ वह था 10 कोस दूर से रामबुझावन को बुलाना।रामबुझावन के बारे में यह मशहूर था कि जो गुत्थियां बड़े बड़े पुलिस ऑफिसर, उनके खोजी कुत्ते यहां तक कि सी.आई.डी. ऑफीसर्स तक नहीं सुलझा पाते थे वह गुत्थियां रामबुझावन आत्मा की मदद से चट से सुलझा देता था।

उस दिन हरिहर बाबू के ओसारे पर रामबुझावन आया और कौतूहल में डूबी भीड़ के सामने उसने अपनी आसेबी तफ़्तीश शुरू कर दी।

राम बुझवान ने बड़े से सफ़ेद कागज़ पर कई अबूझ आरेख खींचे,जाने क्या क्या निशान बनाये फिर कटोरे को पलट कर रख दिया और उसपर अंगुली रख आंखें बंद कर वह अस्फुट स्वर में कुछ कहता आत्मा का आह्वाहन करने लगा।लोगों को रामबुझावन द्वारा यह ताक़ीद कर दी गई थी कि वे हलचल न करें ताकि आत्मा को बुलाने में कोई व्यवधान न पड़े।गर्भवती स्त्रियों को दूर रहने कहा गया था।भीड़ पर एक रहस्यमयी आतंक पसर गया था।लोग सांस थामे रामबुझावन की कारगुज़ारी देख रहे थे।अचानक रामबुझावन की अंगुली के नीचे पड़ा औंधा कटोरा फिसलने लगा।अगर वहां कोई रैशनलिस्ट होता तो इस घटना का श्रेय अंगुली के दबाब से उत्पन्न हुए केन्द्रापग बल को देता पर गांव में किसी रैशनलिस्ट के होने की उतनी हीं संभावना होती है जितनी कि रेगिस्तान में पानी की।अगर भूले से कोई रैशनलिस्ट कभी गांव आ भी जाए तो गांव की पुरातन मान्यता को चुनौती देते रैशनलिस्ट को गंवई मूल्यों के प्रहरी लठैत मारते पीटते गांव से कोसों बाहर खदेड़ आते हैं।

बहरहाल बात रामबुझावन के चोर-पकड़ उपाय की ,रामबुझावन का कटोरा घूमता घूमता रामबुझावन द्वारा बनाये एक निशान पर थम गया ।रामबुझावन ने कुछ गूढ़ आकलन किया और कहा -'चोर पश्चमी टोला में 100 परिदेश के अंदर रहता है।चोर का रंग काला है और क़द मझौला '

रामबुझवान की इस बात ने लोगों के बीच अटकलों के घोड़े दौड़ा दिये।

'ज़रूर मनसुखवा का बेटा परमानन्द होगा।रंग भी काला है और पश्चिम टोला में भी रहता है और है भी साला बड़ा घाघ ।'

'नहीं नहीं परमानन्द नहीं होगा,पांच साल लुधियाना में ऊन का फैक्ट्री में नौकरी कर बहुत कमाई किया है उ , देखे नहीं कैसे नयका फटफटिया लिया,छप्पड़ सिजवाया ।उसको चोरी करने का क्या ज़रूरत!'

यह अटकल जब खारिज़ हुई तो किसी ने धीरे से हरिहर बाबू के कान में कुछ कहा जिसे सुनकर हरिहर बाबू की नज़र भीड़ में खड़े महाबली पर टिक गई। रामबुझावन के विवरण से मेल खाता महाबली समझ गया कि उसपर हरिहर बाबू की बेटी के हार की चोरी का शक़ किया जा रहा है।वह फ़ौरन कह पड़ा-'मालिक हम मर्द हैं मर्द ,चोरी नहीं छिनैती करते हैं ,उ भी चार गांव छोड़ कर ।नौ साल से ई धंधा में हैं ,कोई गांव,ग्वार का कह दे कि हम कभी अपना गांवा को लूटे हैं,माँ काली का क़सम यहीं अपने हाथ से अपना गर्दन काटकर आपका चरण पर धर देंगे।' 

महाबली की बात में आत्मविश्वास और स्वाभिमान लहलहा रहा था।ऐसा स्वाभिमानी आदमी भला चोरी-चकारी जैसा तुच्छ काम कैसे कर सकता था और इसलिए उसे भी संदेह के घेरे से बाहर निकाल दिया गया ।कुछ और नाम उठे और तर्क की कसौटी पर खारिज़ हुए,फ़िर नाम आया मंगना का।

एक ने कहा-'मंगना काला भी है और उसका क़द भी मझौला है।और तो और उसके घर में हरदम फांकेहाली रहता है।भूख जो न कराए।ज़रूर वही चोरी किया है।'

दूसरे ने इस बात को अपने तर्क से पृष्ठांकित करते हुए कहा'-साला रोटी का छुछलाया ई आदमी सपना देखो कितना बड़ा देखता है।कहता है बेटा को कैसे भी करके पढ़ायेगा,बड़ा आदमी बनाएगा।कैसे भी करके समझ रहें हैं न मतलब चोरी करके चकारी करके।'

उस आदमी की कही इस बात में बड़ा दम था।इंसानों का तर्क और भूत का निर्णय आपस में पूर्णतया मेल खा चुका था।चोर ज़ाहिर हो चुका था।हरिहर बाबू भी निर्णयात्मक स्वर में बोल पड़े- 'चोर ज़रूर मंगना हीं है,तभी तो साला डर के मारे यहाँ आया भी नहीं ।लाओ साले को खींच के।'

यह सुनते हीं गांव के लठैतों,बकैतों का हुजूम त्वरित न्याय करने माँगन की झोपड़ी की ओर कूच कर पड़ा।थोड़ी देर बाद भीड़ द्वारा मांगन की खुदरा मार-पिटाई करते हुए उसे हरिहर बाबू के ओसारे पर लाया गया ।मार-पीट का थोक और असल कार्यक्रम अब शुरू हुआ।मांगन रिरियाते हुए लाख सफ़ाई देता रहा पर भूत के निर्णय पर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी अतएव उस पर लात,घूंसे बरसते रहे।बीच बीच में लोग यातना के नई नई विधियां सुझाते रहे और उन विधियों का क्रियान्वयन भी होता रहा ।एकाध बड़े बुजुर्गों ने अपने संग्रहित अनुभवों के आधार पर यह भी कहा-' मार सधाने के लिए हरामी भांग खा कर आया होगा,पहले इसे नींबू चटाओ फिर मारो तब इसपर दर्द का असर होगा।'

हिंदुस्तान में अस्सीसलाना सलाह बड़ी कीमती होती है।यह राजनीति की धुरी होती है,देश की दशा और दिशा तय करने वाली होती है और इसलिए उस मजलिस में भी इसे बड़ी गम्भीरता से लिया गया ।सलाह पर फ़ौरन अमल किया गया।मांगन को ढ़ेर सारा नींबू चटाने के बाद मारने का स्थगित कार्यक्रम फ़िर से चालू कर दिया गया।इतनी पिटाई खा कर भी मांगन ने अब तक अपना अपराध नहीं क़बूला था ।उसके होश के दिये लगभग बुझने हीं लगे थे कि तभी ओसारे पर हरिहर बाबू की नौकरानी आई और भीड़ को चौंकाती हुई कह पड़ी- 'दीदीया का हार मिल गया है ,पछियारी बाग में गिरा हुआ था।'


-पवन कुमार ।

Sunday, 7 October 2018

रिश्ते का ट्रांसप्लांटेशन

लघुकथा:रिश्ते का ट्रांसप्लांटेशन
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(एक अख़बारी ख़बर का कहानी में रूपांतरण)
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 07 Oct 2018.
चित्र साभार- गूगल
माँ ने बेटी की दोनों किडनी ख़राब होने की बात सुनी तो उसने तत्क्षण अपनी बेटी को फ़ोन लगाया और सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में कहने लगी-
'हाय यह क्या हो गया मेरी लाजो।यह नामुराद बीमारी मुझे हो जाती,मैं तो अपनी ज़िंदगी जी चुकी हूं।
करूं भी तो क्या करूं।अगर चार धाम जाने की मन्नत न मांगी होती तो मैं तुझे अपनी एक किडनी दे देती।यह तो तू भी समझती है बेटी एक किडनी के दम पर ईश्वर का दर्शन करने पहाड़ पर चढ़ना न हो पायेगा।हाय करूं भी तो क्या करूं,मेरे सिवा इस घर में तेरा कोई है भी तो नहीं।हे ईश्वर यह तूने किस धर्म संकट में डाल दिया।'
माँ के रोने-धोने पर बेटी ने किसी तरह आश्वासन का विराम लगाया और फ़िर इस बात को चंद दिन गुज़र गए।
उस दिन माँ ने बेटी को फ़िर फ़ोन किया और बेटी की उसी पुरानी पुत्रीचिन्ता से सिक्त स्वर में मिजाजपुर्सी की तो बेटी बोल पड़ी -' माँ अब तुम परेशान मत होना,मुझे ट्रांसप्लांटेशन के लिए किडनी भी मिल गई है और माँ भी।मेरी सास ने मुझे किडनी डोनेट करने का फ़ैसला कर लिया है।'

Saturday, 6 October 2018

बुलेट ट्रेन

कविता:बुलेट ट्रेन
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 5th Oct 2018.
चित्र साभार- गूगल
बुलेट ट्रेन शुरू होने वाली है....
यह शानदार शाहाना ट्रेन,
उन उजड़े दयारों से गुजरेगी
जहाँ मातम का स्थायी पता है;

पटरी के दाएं बाएं होंगी
बंजर ज़मीनें, ऊसर खेत,
दुर्भिक्ष के मारे लोग,
विलापती औरतें,
भूखे बच्चों के गड्ढ से पेट,
और आत्महन्ताओं की
हड्डियां;

सुना है बुलेट ट्रेन द्रुतगति से भागेगी,
निबख़्तों को बदहाली की
ज़मीं पर छोड़,
इतनी द्रुतगति से कि उसपर
सवार रईस नहीं देख पाएंगे
कभी इन अभागों की बदहाली;

सरकार से कहना 
कि वह इस ट्रेन के 
स्थापन की कीमत
किसानों को न बताए,
बेचारे गश खा जाएंगे;
उनके लिए तो 
इस ट्रेन का भाड़ा भी
विस्मयकारी तरीके से
महंगा है जो उन्हें 
कई दिनों की भूख से
निज़ात दिला सकता है।

उस पैसे से सूने खूंटे का पगहा,
जिसे गले में बांध वे 
किसी सूखे ठूंठ से झूलते हैं,
से बैल बंध सकता है,
उनका पेट पल सकता है,
जीवन रथ चल सकता है,
मरण टल सकता है।

-पवन कुमार।

Friday, 5 October 2018






मैंने हालिया तालिबान से राब्ता रखती सच्ची घटनाओं पर आधारित एक फ़िल्म देखी।देखकर इल्म हुआ कि दुनिया में ऐसी भी ज़गहें हैं जहाँ इंसानियत के लहू से लोग वज़ू करते हैं।जहाँ औरतों को सच्ची शरीयत के झूठे कायदे के क़फ़स में बंद कर दिया जाता है,सपने देखने पर पत्थरों से कुचल कुचल कर मार दिया जाता है।
शरीयत में 'सलत' मतलब की प्रार्थनाएं,'हज़' मतलब की तीर्थ यात्रा ,'ख़ुम्स' मतलब की दान जैसी नेक चीजें हैं पर इमाम इसमें इंसानियत को लहूलुहान करने वाला पत्थर जाने कहाँ से ले आए!
एक तरफ़ हिंदुस्तान,मिश्र जैसा तरक़्क़ीयाफ़्ता देश है जहाँ की मुस्लिम औरतें उम्मीदों के पंख लगा आसमान की परवाज़ी कर रही हैं तो दूसरी तरफ़ इन ज़हन्नुमी ज़गहों की स्याहबख़्त औरतें जिनके मुक़द्दर में इस्तहसाल(शोषण)के सिवा कुछ नहीं।काश दुनिया के नक्शे में ऐसी ज़गहें न होती।
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 2nd July 2018.
वह औरत 
जो हमेंशा हिज़ाबबंद रहती थी,
इजाज़त की हद तक कहती थी
मर्द की मर्दगीरी सहती थी;


वह जो अपने तन्हां स्याह कमरे के
छोटे से दरीचे से
झांका करती थी बाहर
और अपनी आँखों में भर लेती थी
दूर तक जाता रास्ता,
दिन का उजाला
पक्षियों की उड़ान,
और आसमान का विस्तार,
उसकी एक आते जाते राहगीर से
आशनाई हो गई,
जिससे उसने पूछा कि
वह रास्ता कहाँ कहाँ जाता है?
'मगरिबी दुनिया की ओर 
जहाँ औरतें सतरंगी सपने 
बुन सकती हैं,
अपनी पसंद के लत्ते,
अपनी पसंद का प्रेमी,
अपनी पसंद की ज़िंदगी 
चुन सकती हैं'

राहगीर का ज़वाब था;

उस औरत को राहगीर के
इस ज़वाब से निस्बत हो गई,
लोगों ने समझा उसे पराए
मर्द से मोहब्बत हो गई;

वह औरत इश्क़ करती
पकड़ी गई है
और इसलिए
तजवीज़ हुई है सज़ा
उसे संगे-मलामत से मारने की,
तब तक जब तक कि
उसके रगों से
गुनाह-आलूदा लहू का
आखिरी
क़तरा न बह जाए;

उसे गाड़ दिया गया है
आधा ज़मीन में
और उसे मारने के लिए
दिया गया है पहला पत्थर
भीड़ की इमामत करते
उस आदमी को
जो मज़हब का ठेकेदार है
और जो उस औरत के
गुदाज़ बदन को
हासिल करना चाहता था ;

उसने पत्थर फेंका,
पत्थर आ लगा है
औरत की पेशानी पर,
उस पेशानी पर
जिसपर लिखे मुक़द्दर की
तरतीम करने का हक़ था उसे,
उस पेशानी से फूट पड़ा है
लहू का फव्वारा
और रफ़्ता रफ़्ता धुलने लगा है
ग़ुनाह औरत का;

दूसरा पत्थर मारा है
औरत के ख़ाविन्द ने
जो औरत को रात-दिन
भोगता रहा है,
जिसे पता है औरत के बदन के
चप्पे चप्पे का,
पता है कि
हसरतें कहाँ पनाह लेती हैं
और इसलिए उसने मारा है
एक अचूक पत्थर
औरत के क़ल्बी हिस्से में
और उधड़ पड़ा है
औरत का दिल,
बिलबिला गई है औरत
दर्द से;

एक पत्थर दिया गया है
औरत के कमउम्र बेटे को
कुछ यूं,
गोया उसे विरासत दी गई हो
मर्दों की बेरहम फ़ितरत की;

बच्चे ने भी चलाया है पत्थर
और पत्थर आ लगा है
औरत की उस छाती से
जिससे ममता रिसती थी,
जिसे चूस कर
इतनी जान आ गई है
उस बच्चे के हाथों में
कि औरत की छाती
ज़ख्मी हो जाती है बुरी तरह;

अब बारी भीड़ की
और तड़ातड़ होती रहती है
अंधधुन पत्थरबाजी;

बाक़ी औरतों को
दिखाया जा रहा है
वह मंज़र
और ठोका जा रहा है
उनके सीने में
खौफ़ का नश्तर,
नूरयाफ़्ता ख़्वाबों को
औरतों के दिल के
अँधियाले संदूक में
हमेंशा के लिए
पेटीबन्द किया जा रहा है,
यह नज़ारा देख रही
औरत की नन्ही बच्ची
सबक ले रही है
और मन हीं मन तय कर रही है
कभी अम्मी जैसा ख़्वाब
न देखने की;

अब औरत की गर्दन
एक ओर लुढ़क गई है
प्रतिकार की छटपटाहट
थम गई है,
दर्द अब मौन है,
अब औरत को शायद ग़ुनाहों की
मग़फ़िरत मिल गई है।

-पवन कुमार श्रीवास्तव।