Friday, 5 October 2018






मैंने हालिया तालिबान से राब्ता रखती सच्ची घटनाओं पर आधारित एक फ़िल्म देखी।देखकर इल्म हुआ कि दुनिया में ऐसी भी ज़गहें हैं जहाँ इंसानियत के लहू से लोग वज़ू करते हैं।जहाँ औरतों को सच्ची शरीयत के झूठे कायदे के क़फ़स में बंद कर दिया जाता है,सपने देखने पर पत्थरों से कुचल कुचल कर मार दिया जाता है।
शरीयत में 'सलत' मतलब की प्रार्थनाएं,'हज़' मतलब की तीर्थ यात्रा ,'ख़ुम्स' मतलब की दान जैसी नेक चीजें हैं पर इमाम इसमें इंसानियत को लहूलुहान करने वाला पत्थर जाने कहाँ से ले आए!
एक तरफ़ हिंदुस्तान,मिश्र जैसा तरक़्क़ीयाफ़्ता देश है जहाँ की मुस्लिम औरतें उम्मीदों के पंख लगा आसमान की परवाज़ी कर रही हैं तो दूसरी तरफ़ इन ज़हन्नुमी ज़गहों की स्याहबख़्त औरतें जिनके मुक़द्दर में इस्तहसाल(शोषण)के सिवा कुछ नहीं।काश दुनिया के नक्शे में ऐसी ज़गहें न होती।
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 2nd July 2018.
वह औरत 
जो हमेंशा हिज़ाबबंद रहती थी,
इजाज़त की हद तक कहती थी
मर्द की मर्दगीरी सहती थी;


वह जो अपने तन्हां स्याह कमरे के
छोटे से दरीचे से
झांका करती थी बाहर
और अपनी आँखों में भर लेती थी
दूर तक जाता रास्ता,
दिन का उजाला
पक्षियों की उड़ान,
और आसमान का विस्तार,
उसकी एक आते जाते राहगीर से
आशनाई हो गई,
जिससे उसने पूछा कि
वह रास्ता कहाँ कहाँ जाता है?
'मगरिबी दुनिया की ओर 
जहाँ औरतें सतरंगी सपने 
बुन सकती हैं,
अपनी पसंद के लत्ते,
अपनी पसंद का प्रेमी,
अपनी पसंद की ज़िंदगी 
चुन सकती हैं'

राहगीर का ज़वाब था;

उस औरत को राहगीर के
इस ज़वाब से निस्बत हो गई,
लोगों ने समझा उसे पराए
मर्द से मोहब्बत हो गई;

वह औरत इश्क़ करती
पकड़ी गई है
और इसलिए
तजवीज़ हुई है सज़ा
उसे संगे-मलामत से मारने की,
तब तक जब तक कि
उसके रगों से
गुनाह-आलूदा लहू का
आखिरी
क़तरा न बह जाए;

उसे गाड़ दिया गया है
आधा ज़मीन में
और उसे मारने के लिए
दिया गया है पहला पत्थर
भीड़ की इमामत करते
उस आदमी को
जो मज़हब का ठेकेदार है
और जो उस औरत के
गुदाज़ बदन को
हासिल करना चाहता था ;

उसने पत्थर फेंका,
पत्थर आ लगा है
औरत की पेशानी पर,
उस पेशानी पर
जिसपर लिखे मुक़द्दर की
तरतीम करने का हक़ था उसे,
उस पेशानी से फूट पड़ा है
लहू का फव्वारा
और रफ़्ता रफ़्ता धुलने लगा है
ग़ुनाह औरत का;

दूसरा पत्थर मारा है
औरत के ख़ाविन्द ने
जो औरत को रात-दिन
भोगता रहा है,
जिसे पता है औरत के बदन के
चप्पे चप्पे का,
पता है कि
हसरतें कहाँ पनाह लेती हैं
और इसलिए उसने मारा है
एक अचूक पत्थर
औरत के क़ल्बी हिस्से में
और उधड़ पड़ा है
औरत का दिल,
बिलबिला गई है औरत
दर्द से;

एक पत्थर दिया गया है
औरत के कमउम्र बेटे को
कुछ यूं,
गोया उसे विरासत दी गई हो
मर्दों की बेरहम फ़ितरत की;

बच्चे ने भी चलाया है पत्थर
और पत्थर आ लगा है
औरत की उस छाती से
जिससे ममता रिसती थी,
जिसे चूस कर
इतनी जान आ गई है
उस बच्चे के हाथों में
कि औरत की छाती
ज़ख्मी हो जाती है बुरी तरह;

अब बारी भीड़ की
और तड़ातड़ होती रहती है
अंधधुन पत्थरबाजी;

बाक़ी औरतों को
दिखाया जा रहा है
वह मंज़र
और ठोका जा रहा है
उनके सीने में
खौफ़ का नश्तर,
नूरयाफ़्ता ख़्वाबों को
औरतों के दिल के
अँधियाले संदूक में
हमेंशा के लिए
पेटीबन्द किया जा रहा है,
यह नज़ारा देख रही
औरत की नन्ही बच्ची
सबक ले रही है
और मन हीं मन तय कर रही है
कभी अम्मी जैसा ख़्वाब
न देखने की;

अब औरत की गर्दन
एक ओर लुढ़क गई है
प्रतिकार की छटपटाहट
थम गई है,
दर्द अब मौन है,
अब औरत को शायद ग़ुनाहों की
मग़फ़िरत मिल गई है।

-पवन कुमार श्रीवास्तव।


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