Wednesday, 3 October 2018

कविता:विसर्जन


कविता:विसर्जन
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चित्र साभार- गूगल

©®Pawan Kumar Srivastava/written on 3rd Oct 2018.

गणेश उदरस्थ कर सकते हैं
तुम्हारे अपसर्जित कर्मकाण्डों को,
सिंदूर पुती तुम्हारी श्रद्धा को,
प्रसाद के झूठे पत्तलों को,
थर्मोकोल के दस दिवसीय
देवालयों को,
क्योंकि उनका उदर लम्बा है;
पर समन्दर उदरस्थ नहीं 
कर पा रहा उन चीजों को 
और इसलिए समन्दर 
उलीच रहा है वह सब
जो तुमने विसर्जित किया था;

किनारों पर उथले पड़े हैं 
छिन्नमस्तक गणेश,
उनकी भुजा,उनकी टांगे,
उनका दंत;
लोग निर्विकार भाव से 
पैरों तले रौंद रहे हैं उन्हें,
उन भंकृत अंगों पर फेंक रहे हैं
अपने थूक,खखार 
और अन्य अपशिष्ट
मानो वह देवांश नहीं 
कूड़े की पेटी हो;

गणेश चतुर्थी तो बीत चुकी है,
अब कहाँ रहे गणेश शक्त,
पुजनीय,मनोरथ 
सिद्ध करने वाले या दण्डकारी,
और इसलिए न उनसे 
फलापेक्षा कोई 
और न हीं सजा का कोई भय 
मनुष्यों को;

समन्दर औंधे पड़े गणेश 
के घावों को सहला रहा है 
और भंकृत गणेश सहला रहे हैं
समन्दर के घावों को।

-पवन कुमार ।

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