मासिक धर्म के वो पांच दिन।
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चित्र साभार- गूगल
वो दिन होते हैं
जब रक्त सैलाब सा बहता है।
वो दिन होते हैं
जब तन दीपक सा दहता है।
वो दिन होते हैं
जब मन सिर्फ दुख गहता है।
वो दिन होते हैं
जब जीवन बोझिल हो टहता है।
जब धूप जेठीली होगी तो
अपने तले छांह पालूंगी।
पूस के सर्द दिनों में मैं,
आँचल में आंच उबालूंगी।
सबके खाने के बाद बचा-कुचा
कुछ भी खा लूंगी।
मैं सुख-दुख के सारे नग़मे,
हंसते हंसते गा लूंगी।
दूंगी मैं फिर झाड़ू-खटका
मैं चौका-बर्तन सम्हालूंगी।
बच्चों के नखरे,बूढ़ों के खखरे-सखरे,
मैं फिर सब बोझ उठा लूंगी।
तेरी कही हर बात को मैं,
अपने शीश पे धारूँगी।
फिर पहनूँगी मैं झुमके-बिछिया,
तेरी सेज सवारूँगी।
बस इतना सा जतन कर लो,
वो पांच दिन सहन कर लो।
-पवन कुमार श्रीवास्तव।

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