Tuesday, 31 July 2018

तेज़ाब की तासीर

क्या आप किसी तेज़ाब से जली लड़की को जानते हैं????
चित्र साभार- गूगल 
कविता:तेज़ाब की तासीर
********************
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 12th May 2018.

मैं बहुत सुंदर थी,
मृणाल बदन था मेरा
और चेहरा चन्द्रप्रभा सा।

मैं आईने को नहीं 
आईना मुझे तका करता था,
अपलक,अविराम।

मेरे पिता मेरी बलैय्यां लेते थे,
मेरी माँ मुझे नज़रे-बद से 
बचाने के लिए काला टीका
लगाया करती थी।

पर एक दिन किसी ने 
मुझपर तेज़ाब उड़ेल,
मुझे स्याह-रू कर दिया,
मेरे बदन को अपहत कर दिया।

जिस चेहरे से नूर टपका करता था
अब उस चेहरे से मवाद टपकता है।

अब पपड़ीदार माथे पर बिंदी
टिकती नहीं,
अब झुलसे होठों में लिपिस्टिक 
की लाली खो जाती है;

अब आईना मुझसे नज़रें चुराता है,
और दर्द बार बार ख़ुद को दुहराता है।

क्या तेज़ाबी तासीर ताउम्र रहती है,
ज़िन्दगी को किश्तों में जलाने
के लिए?

क्या मेरे रूह पर पड़ा अंगार
कभी ठंडा नहीं होगा?

क्या मेरे ख़्वाब बेक़दरी की भट्टी
में भुनते रहेंगे?

क्या मेरे हाथों में कभी मेंहदी,
पैरों में महावर नहीं रचेंगे?

क्या काले, कलुषित बदन पर
हल्दी,कुमकुम नहीं चढ़ती?

नहीं !
ज़िन्दगी ने अगर ज़ख्म दिया है
तो मरहम भी ज़रूर देगी।

कोई आएगा जिसकी आंखें
इन सड़ी चमड़ियों को भेद कर
मेरे हौसले के ज़ीनत को देखेंगी।

मेरे बदन को भले तेज़ाब ने 
जला दिया हो,
पर मेरा हौसला अब भी 
चाँद की उजास लिये
दमक रहा है।

मैं अब भी सुंदर हूँ,
हूँ न????

-पवन कुमार श्रीवास्तव।

Sunday, 29 July 2018

मृत्यु भोज

{मृत्युभोज की निस्सारिता पर लिखी कविता}
कविता
***************
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 29th June.

मृतक के शोक में आ गई थी रंगत,
जब मृत्युभोज जीमने आई थी पंगत।

लोग छककर पकवान खा रहे थे,
और मृतक के कसीदे गा रहे थे।

अहा पूरियां बड़ी स्वादिष्ट थीं,
शायद उनमें मृतक की आत्मा आविष्ट थी।

अहा रसगुल्ला बड़ा रसीला था,
शायद वह मृतक के मीठे आंसूओं से गीला था।

दस्तरख़ान पर रखी थी
मेवायुक्त श्वेतवर्णी खीर,
ओह मृतक बेचारा था 
कितना सौम्य व धीर!

चावल पर डली जब
तेजपत्ते की छौंक वाली दाल,
दिल में हुआ तब
मृतक के मरने का मलाल।

कुछ वक़्फे बाद जब लोग
चले गये मारते डकार,
वहाँ पड़े मृतक की तस्वीर से 
उतार लिया गया हार।

वाह क्या उत्तम अद्भुत मृत्युभोज था!
मृतक की तस्वीर पर भी संतुष्टि का ओज था।

-पवन कुमार श्रीवास्तव
चित्र साभार- गूगल

Saturday, 28 July 2018

लघुकथा:कुमेल

वह धनाढ्य दम्पति अपने अबोध बच्चे के साथ अपनी शानदार कार से उतरकर जब एक जेवरात की दुकान की ज़ानिब जा रहा था तो दो आंखें उसका मुसलसल पीछा कर रही थीं।

दुकान में दाख़िल होने के बाद पत्नी अपने बच्चे को अपनी गोद से नीचे उतार ख़रीदने की नीयत से करीने से सजे मनोहारी जेवरात का मुआयना करने लगी ।उसने एक स्वर्णहार अपने सुराहीदार गले से लगाया और अपने पति के सिम्त देख,वह हार उस पर जंच रहा है या नहीं,अपने पति से इस बात की तस्कीन करने लगी ।इस दौरान नया नया चलना सीखा बच्चा अपने इस रोमांच का मज़ा लेने लड़खड़ाते क़दमों से बढ़ चला और जाने कैसे दुकान के बाहर आ गया जहाँ लोगों की भीड़ और आती जाती गाड़ियों की रेलम-पेल थी।इससे पहले कि वह मासूम बच्चा किसी गाड़ी की चपेट में आ जाता किसी के निशक्त हाथों ने उसे थाम लिया ।वह एक मिसकिन सी सूरत वाला एक भिखारी था जिसके बदसूरत बदन और बदन पर मौज़ूद चीथड़ों से बेइंतहा भूख और ग़रीबी टपक रही थी।भिखारी ख़ुद को और बच्चे को गाड़ियों से दूर एक सुरक्षित पनाह देने के लिए सड़क के उस ओर भागा पर बेक़दरी की मार से स्याहबदन हुए भिखारी और अभिजातीय ओज से युक्त बच्चे के कुमेल ने लोगों के अंदर यह सोंच पैदा कर दी कि भिखारी बच्चे को चुरा कर भाग रहा है।सब टूट पड़े उस पर।जब लोग उस भिखारी पर लात,घूंसे बरसाने में मशगूल थे,कहीं से रईसाना पोशाक में मबलूस एक आदमी आया और उस बच्चे को ले उड़ा।यह वही आदमी था जिसकी आंखें बच्चे का पीछा कर रही थी और बच्चे को अगवा करने का मौका तलाश रही थी।
-पवन कुमार।

©®Pawan Kumar Srivastava/written on 22 July 2018.

Friday, 27 July 2018

लघुकथा:क़िस्मत

किसी मनोहारी गंतव्य की ओर जा रही वह एसयूवी गाड़ी जो गर्व से इठलाते राजमार्ग पर ऊसर प्यासी ज़मीन के सामानान्तर चल रही थी,अचानक रुक गई।ड्राइवर समेत कार में सवार दोस्तों का झुंड बाहर निकल आया।बियर पीने का सिलसिला जो अबतक गाड़ी के अंदर चल रहा था,अब बाहर चल पड़ा। ड्राइवर ने गाड़ी का निरीक्षण करके कहा-'साहब रेडियेटर गर्म हो गया है।आगे जाने के लिए इसमें पानी डालना होगा।'

'इस सूखाग्रस्त इलाके में पानी आसानी से मिलने से तो रहा,ऐसा करो गाड़ी में मिनरल वाटर पड़ा है,उसे डाल दो।'
किसी मालिकी सलाह पर ड्राइवर गाड़ी से मिनरल वाटर निकाल रेडियेटर में डालने के लिए रेडियेटर के ठंडा होने का इंतज़ार करने लगा।इस बीच एक मसखरेबाज़ अपने दोस्तों का मनोरंजन करने के लिये मज़ाकिया कॉमेंट्री करने लगा,कुछ इस अंदाज़ में - 'मुम्बई से दमन के हमारे सफ़र में राहुल सिंह अब तक तीन बियर और एक बोदका गटक चुके हैं,सोमेश साढ़े सत्तरह बार अपनी बेवफ़ा सोनम को गाली दे चुके हैं और गज्जू गुलाटी चार बार असहनीय दुर्गंध छोड़ चुके हैं।हमारी गाड़ी एक झंडू सी ज़गह पर ख़राब हो गई है जहाँ दूर दूर तक सूखी ज़मीन पसरी है जो रामू माली की एड़ियों की तरह फ़टी हुई है ।लगता है इस पर किसी को बोरोप्लस लगाना होगा।'
उस मसखरेबाज़ शख्स की इस मज़ाकिया टिप्पणी पर सब बेसाख़्ता हंस पड़े पर ड्राइवर जो शायद लंबे समय से इन रईसों की ऊलूल-जुलूल हरकतें झेल रहा था,के चेहरे पर शिकायती भाव क़ाबिज़ था।मसखरेबाज़ ने देखा,दूर कुछ नंगे-अधनंगे बच्चे कहीं से कट कर आई पतंग उड़ा रहे थे।मसखरेबाज़ ने अपनी टिप्पणी का रुख़ उस ओर मोड़ते हुए कहा ' दूर कुछ सुकड़े से बच्चे अपने वातानुकूलित परिधान में,जिसमें हवा के आने जाने के लिये छेद बना है,पतंग उड़ा रहे हैं ।इनके यहाँ काफ़ी समय से बारिश नहीं हो रही ,इसलिए ये पतंग में चिट्ठी लिखकर ऊपर भगवान को भेज रहे हैं कि वे ज़ल्दी से बारिश करा दें।यह क्या! उनकी पतंग धागे से टूट कर एक सूखे पेड़ की डाल से लटक गई है।'
मसखरेबाज़ की इस बात पर ड्राइवर को बोले बग़ैर नहीं रहा गया।उसने कसैलेपन से सनी आवाज़ में कहा-
'साहब वो किसान के बच्चे हैं,टूटना और फिर किसी सूखे पेड़ की डाल से लटक जाना,उनकी क़िस्मत है।'
चित्र साभार-गूगल 
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 27th July 2018.

Wednesday, 25 July 2018

लघुकथा:फूल


चित्र साभार - गूगल 

वह औरत जिसका सौंदर्य ग्रहणयुक्त चाँद सा निष्प्रभ हो गया था ,जो अपने शरीर के पोर पोर से अपनी शोषित होने की कहानी कह रही थी,निढ़ाल सी उस सरकारी बाग के बेंच पर बैठ गई।उसने अपनी निचाट निसंग दृष्टि बाग में दौड़ाई,देखा चारों ओर नानावर्णी फूल आह्लादक हवा में झूम रहे थे।साथ हीं एक पाषाण-पट्टिका पर लिखा था 'इन नयनाभिराम फूलों को देखो,निरेखो,सूँघो,सराहो,पर तोड़ो मत।'
जाने उस औरत को क्या सूझी उसने धरती पर गिरा एक कंकड़ उठाकर पाषाण-पट्टिका पर लिखे 'फूलों' को काटकर उसकी ज़गह 'औरतों' लिख दिया।
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 23rd July 2018.
-पवन कुमार ।

Monday, 23 July 2018

बदचलन लड़की

चित्र साभार- गूगल 

जिम में वर्कआउट करता आबिद चोर निगाहों से उसी जिम में मौजूद अपनी सोसाइटी में रहने वाली सनाया सिद्दकी को देखे जा रहा था।देख क्या रहा था बल्कि अपने स्कैनरनुमा आंखों से सनाया के कपड़े को भेदता उसमें पोशीदा उसकी खूबसूरती का लुत्फ़ लिये जा रहा था।उस समय उसे अपने दोस्त सोहेल की कही यह बात याद आ रही थी-'यार ये सनाया न बड़ी चालू चीज़ है।'
'तू ये कैसे कह सकता है?'आबिद ने जब यह सवाल दागा तो सोहेल अपनी बात को तर्क का जामा पहनाते हुए कहने लगा।
'उसका पति क्रूज़ पर काम करता है,छह छह महीने बाहर रहता है।इतने दिनों की जिस्मानी भूख बड़े बड़े सती सवित्रियों को चालू बना देती है ।और ये सनाया, उसका रंग ढंग देखा है.....इतना उत्तेजक मेकअप,इतना भड़काऊ ड्रेस,ठुड्डी में रिंग,बदन के मुश्तइल हिस्से पर टैटू कौन करवाती है,एक अच्छी चलन वाली औरत क्या?आई बेट कोई भी गुड लुकिंग मर्द इसपे चांस मारे न तो ये चुटकी बजाते पट जाएगी।'
जहां सनाया की खूबसूरती को देखकर आबिद के दिल में कई नाजायज़ हसरतें कुचालें मार रही थीं वहीं सोहेल की कही यह बात याद कर उसके दिल मे उन हसरतों को अमली जामा पहनाने की दीदादिलेरी भी पनपती जा रही थी।खुद के शकील चेहरे और कसरती बदन के जाज़िब तास्सुर पर यकीन करता हुआ और शायद उससे भी ज्यादा सनाया को एक आसान शिकार मान वह सनाया की ओर बढ़ चला।
'आप यहां वर्कआउट करने रोज आती हैं?'
आबिद ने अपनी शतरंजी बिसात की पहली चाल चलते हुए कहा।
'हाँ' सनाया ने जवाब दिया।
'तभी तो बड़ी जबरदस्त फिगर है आपकी'
कसीदानुमा यह आबिद की दूसरी चाल थी।एक ऐसी चाल जो आबिद के मुताबिक शर्तिया कारगर होने वाली थी।
'मैं आपसे यही एक्सपेक्ट कर रही थी'
'जी मैं समझा नहीं'
'आप वहां से खड़े खड़े जब मेरे बदन का एक्सरे कर रहे थे न तो मैं जान गई थी कि आप ऐसी हीं कुछ ओछी हरकत करेंगे।'सनाया ने जब थोड़े तल्ख लहज़े में ऐसा कहा तो आबिद घबरा गया।उसने लुकनत-ज़दा(हकलाते हुए)ज़ुबान में कहा-'म मैं बस आपको एक जेन्युइन और फ्रेंडली कॉम्प्लिमेंट दे रहा था'
'डोंट ट्राय टू बी ओवरस्मार्ट विथ मी।और हाँ अपना फ्रेंडली कॉम्प्लिमेंट न अपने दोस्तों के लिए बचा कर रखिये।मुझसे आइंदा से अदब से पेश आइयेगा वरना आप जैसे लोगों से निपटना मुझे अच्छी तरह से आता है।'
यह कहकर सनाया वहां से चली गई।आबिद भी बेहुरमती भरा चेहरा लेकर बगले झांकते वहां से चला गया।इत्तिफ़ाक़न इस वाकये के अगले हीं दिन आबिद की फिर से सोहेल से मुलाकात हो गई।सोहेल को देखते हीं ज़नाब का पहला जुमला यह था'तू सच कह रहा था यार,ये सनाया बड़ी बदचलन औरत है।'
                                                         ©®Pawan Kumar Srivastava
-पवन कुमार श्रीवास्तव की मौलिक रचना।

Sunday, 22 July 2018

ग़रीब


ग़रीबों की ग़ुरबती के ऊपर
अफ़रात स्याही उड़ेली गयी
कई आलेख लिखे गए
कई सोंच धकेली गयी

कभी मज़मा लगा
कभी मजलिश सजी
मुख्तलिफ़ ख़यालों की
खूब रंजिश मची

कागज़ी नीतियां बनी
ज़ुबानी भाषण हुआ
मंच पे सरमायादारी का
जम के निष्कासन हुआ

जुल्म जकड़ा गया
ख़ुलूस ने सबको छुआ
जो जो हो सकता था
वो वो सबकुछ हुआ

गोशे-ज़ुल्मत में पर
ग़रीब बैठा रहा
उस तक तरक्की की
कभी न पहुँची शुआ ।

©®Pawan Kumar Srivastava
पवन कुमार श्रीवास्तव की मौलिक रचना।

Saturday, 21 July 2018

लघु कथा-टिम्सी



उस नीमआबाद कस्बे में 12 वर्षीय सोमू और 15 वर्षीय डांगी का घर आसपास था।डांगी अव्वल दर्जे का शरारती था।इतना शरारती कि ,सोमू का दूर के रिश्ते का चाचा होने के बावजूद वह शरारत के मामले में सोनू को भी नहीं बख्शता था।पर चूंकि डांगी थोड़ा जुगाड़ू लड़का था,कैसे न कैसे मेला जाने के लिए इजाजत ,मिठाई-समोसे के लिए पैसे जुगाड़ कर लेता था,सोमू उसका पुछल्ला बना रहता था।इसका सोमू को कभी कभी फ़ायदा हो जाया करता था और उसे भी डांगी के जुगाड़ से हासिल चीज़ों में थोड़ा हिस्सा मिल जाया करता था।
मेले-ठेले,खेल-खिलौने के अलावा सोमू को जिस चीज़ से काफी निस्बत थी,वह था उसका प्यारा कुत्ता टिम्सी।
8 महीने पहले सोमू ने पड़ोस के मोहल्ले से बड़ा खतरा मोल लेकर नन्हे टिम्सी को उसकी माँ के नाक के आगे से उड़ाया था।अब तो टिम्सी काफी बड़ा हो गया था।सोमू के एक टेर पर जब टिम्सी भागा हुआ आता और दुलार जताते हुए पूंछ हिलाने लगता तो सोमू को ऐसा मालूम होता मानो उसे सारी दुनिया की बादशाहत मिल गई हो।टिम्सी उसके दिल का टुकड़ा था।
उस दिन सोमू जब स्कूल जाने के लिए बाहर निकला तो दीवारों को सर्कस के रंगीन इश्तहारों से पटा देख हैरान हो गया।इश्तिहार में मौजूद शेर-हाथी की तस्वीरों ने उसकी कौतुहलता बढ़ा दी।उसने अपने जीवन में सर्कस कभी नहीं देखा था।उसका दिल सर्कस देखने के लिए मचल उठा।

जाड़े की स्तब्ध रात में सर्कस के शेर जब दहाड़ते ,सोमू अपनी रजाई में और भी दुबक जाता था।शेर की दहाड़ सुन कर सोमू को डर भी बहुत लगता था पर साथ हीं साथ अंदर हीं अंदर शेर को देखने की ख्वाइश भी करवटें लेने लगती थी।
उस दिन डांगी जाने कैसे सर्कस की दो टिकटें जुगाड़ करके लाया और सोमू से अपने साथ सर्कस चलने की पेशकश करने लगा।सोमू को ज्यों मन मांगी मुराद मिल गई हो,वह बल्लियों उछल पड़ा।उसकी नियाज़ की तकमील में बस एक दुश्वारी थी,माँ को डांगी के साथ उसे सर्कस जाने देने के लिए किसी तरह राजी करना,सो कुछ देर की चिरौरी,इधर उधर न जाने के वायदों के बाद उसे उसकी माँ की इजाज़त मिल हीं गई।
सोमू ने उस दिन सर्कस का भरपूर लुत्फ़ लिया।घर लौट कर भी वह अपनी माँ को सर्कस की पुरलुत्फ़ बातें बताता रहा।जब उसकी बातों का कूज़ा खाली हो गया तो उसे ख़्याल आया कि वह सुबह से अपने प्यारे टिम्सी से मिला नहीं है।उसने आंगन,बाहर सब जगह टिम्सी को हांक लगाई पर टिम्सी नमूदार नहीं हुआ।सोमू टिम्सी का सब ठौर-ठामा देख आया पर उसका कोई अता-पता न था।सोमू टिम्सी को बदहवास ढूंढे जा रहा था कि तभी पास से गुजरते रिक्शे पर उसने माइक पकड़े एक आदमी को सर्कस का प्रचार करते सुना।
'दुनियां भर में लोगों का भरपूर मनोरंजन करने के बाद आपके शहर में पहली बार जम्बो सर्कस आया है ऐसी ऐसी करतबें ले कर जिन्हें देखकर आप दांतों तले अंगुलियां चबा जाएंगे।देखिये मौत का कुँआ।तोते का तोप चलाना,देखिये कैसे मौत से आंख मिचौली खेलती जाबांज़ हसीनाएं खूंखार शेर के दांत गिनती हैं।
हाथी के आहार के लिए फल-पत्तियां और शेर के आहार के लिए कुत्ते,बकरियां लाने वालों को सर्कस का डिलक्स क्लास का मुफ़्त टिकट मिलेगा।तो आइए आज हीं अपने परिवार के साथ जम्बो सर्कस।'
उस प्रचार को सुन सोमू का सीना धक से रह गया। उसे समझ आ गया था कि डांगी ने टिकट का जुगाड़ कैसे किया था और उसके टिम्सी के गायब होने की वज़ह क्या थी?
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 2nd July 2018.
पवन कुमार श्रीवास्तव की मौलिक रचना।

Wednesday, 18 July 2018

शुक्रिया फेसबुक

मेरे कई दोस्त हैं जिनकी दिलजोई हरकतों पर बेरहम मौत ने हमेंशा के लिए लगाम लगा दिया।पर वे अब भी सुगबुगाते हैं,फेसबुक के अपने पुराने स्टेटस,अपनी देरीना तस्वीरों के ज़रिए।अब भी नोटिफिकेशन हर साल मेरे दिल के कपाट पर उनके नाम की दस्तक दे जाता है और एक भरम पैदा कर जाता है उनके ज़िंदा होने का।
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 2nd July 2018.

ए दोस्त तुम तो चले गए 
इस हक़ीक़ी दुनियां से
पर एक दुनियां है जिसमें 
तुम जस के तस क़ायम हो;

तुम्हारे अंगूठे के इशारे पर 
नर्तन करने वाला वक़्त
जम गया है वहाँ एक हिमनदी सा;

तुम्हारे जन्मदिन पर
तुम्हारे यार-अहबाबों की 
दी गई बधाइयां वहाँ
चिपक गई हैं दीवार पे
किसी छिपकली के मानिंद;

तुम्हारी बेटी वहाँ 
तुम्हारी गोद से
उतरने का नाम नहीं 
ले रही;

तुम्हारे यार तुम्हें
अब भी घेरे हुए हैं वहाँ
उस जश्नाई शाम में
जिसे तुमनें अपने 
सुरा और सुरों से
मख़मूर कर दिया था;

तुम्हारे मम्मी पापा 
अब भी चेहरे पे 
तुम्हारे सलामत होने की
गर्वीली मुस्कान लिए
वहाँ तुम्हारे साथ खड़े हैं;

मेरे पास भी 
हर साल आ जाता है 
एक नोटिफिकेशन,
तुम्हारे जन्मदिन का
और पैदा कर जाता है मुझमें
एक वक़्ती मुग़ालता 
कि तुम ज़िंदा हो;

मैं झांक आता हूँ तुम्हारे 
उस आभासी दयार में तब,
तुम्हें 'हैप्पी बर्थडे' कह 
आता हूँ
और इस तरह भरपूर
महसूस आता हूँ तुम्हें
और दुआ कर आता हूँ
कि उस मजाज़ी दुनियां
में हीं सही,
तुम ज़िंदा रहो ताक़यामत
ए दोस्त।

-पवन कुमार श्रीवास्तव।

Friday, 13 July 2018

ख़बर झूठी थी

'एक मजदूर एक गगनबोसी करती इमारत से गिर कर मर गया'
अख़बार में शाया यह ख़बर झूठी थी या फिर बासी थी 
क्योंकि मजदूर तो कबसे हाशिये पर गिरा पड़ा है।
चित्र साभार- गूगल

और रही बात मरने की तो अपने इस्तहसाल पर चुप्पी साधने वाला मजदूर ज़िंदा था हीं कब?
©®Pawan Kumar
*इस्तहसाल-शोषण

Thursday, 12 July 2018

रुदादे-दिल के लब्बोलुआब इतने आसां नहीं होते,
ग़म-ए-हयात चाहिये........ इसे समझने के लिये।

©®Pawan Kumar
*रुदादे-दिल:दिल की कहानी
*लब्बोलुबाब:सार
*ग़म-ए-हयात:-जीवन भर का ग़म।


(Me and my dearest sister)

Monday, 9 July 2018

लघु कथा:कर्मा

'हैलो'
'हैलो'
'मेरी जतिन ठकराल से बात हो रही है?'
'हाँ मैं जतिन ठकराल बोल रहा हूँ।आप कौन?'
'सर मैं आई टी पी एम बैंक के डीएसए से अनूप कुमार बोल रहा हूँ।सर हमारी कंपनी आपको फ्री में क्रेडिट कार्ड दे ......'
'फ़ोन रख यू इडियट...फ़ोन रख वरना आई विल सू यु'
चित्र साभार- गूगल 
ठकराल ने फ़ोन पर ऐसा तल्ख़ तेवर दिखाया कि टेली कॉलर अनूप ने सहम कर फ़ोन रख दिया।अपमान और अवसाद के भाव उसपे तारी हो गए।अनूप को गहरे अवसाद में डूबा देख उसके पास बैठे सहकर्मी ने पूछा 'क्या बात है यार इतना दुखी क्यूँ है?
'यार ये लोग ,इन्हें क्रेडिट कार्ड नहीं चाहिए ठीक है पर इस तरह का व्यवहार।ये इंसान को इंसान समझते हीं नहीं।'
इस तरफ़ अनूप अपने सहकर्मी के साथ अपना दुःख साझा कर रहा था और दूसरी ओर एक बड़ी कंपनी के डायरेक्टर से मिल पाने में असफ़ल रहा ठकराल कार में घर लौटता हुआ अब भी अंसतोष के कुछ अस्फूट स्वर बुदबुदा रहा था।ठकराल के पुराने मुंहलगे ड्राइवर ने मालिक को इस हाल में देखा तो पूछ बैठा-
'क्या हुआ सर?'
'अरे एक तो इस कंपनी के डायरेक्टर ने मूड ख़राब कर दिया, दूसरा ये कमबख़्त क्रेडिट कार्ड वाले ...इनको कह चुका हूँ कि क्रेडिट कार्ड नहीं चाहिए फिर भी जब तब कॉल करते रहते हैं।'
'कम्पनी के डायरेक्टर ने क्या किया सर?'
'मुझे मिलने का समय देकर पहले तो घण्टे भर इंतज़ार करवाया, फिर रिसेप्शनिस्ट से मुझे कहलवा भेजा कि मैं बाद में आऊं, अभी वह बिजी है।ये साले ज़रा सा क़ामयाब क्या हो जाते हैं,इंसान को इंसान नहीं समझते।'
ठकराल की यह बात सुन,ड्राइवर चाहता था ठकराल को बताना कि सब कर्म का फेर है पर अपनी हैसियत के दायरे को लांघना उसने उचित नहीं समझा और वह चुप रहा।
-पवन कुमार श्रीवास्तव।

©®Pawan Kumar Srivastava/Written on 20th March 2018.

Wednesday, 4 July 2018

बारिश से पहले

दोस्तों शादाब दुशाला ओढ़े और दिल आफज़ाई फुहारों का वायदा लिए मानसून हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ़ इलाकों में दस्तक दे चूका है | बारिश से पहले का दिलकुशा मंज़र ,इसी ख्याल को पिरोया है मैंने अपनी इस कविता में | इस कविता की लज़्ज़त से लुफ़्तअंदोज़ होईये और कीजिये ख़ैरमकदम इस मनभावन मानसून का :
                                                                              
                                                                             
                                      चित्र साभार-गूगल
ये यकायक क्या होने लगा है? 
धरती की धमनियां 
धड़कने लगी हैं 
और आसमां स्याह होने लगा है;
बिजली की आती-जाती चौंध,
जैसे आसमां के स्याह स्लेटों पे 
खुदा सुनहरे हर्फ़ों से कुछ 
लिखने-मिटाने लगा है....
सुग्गे का झुण्ड 
बेतहाशा उड़ा जा रहा है 
पूरब की ओर 
और नीम के सघन शाखों में 
एक कौव्वा दुबकने लगा है,
ये यकायक क्या होने लगा है?

झुक कर माटी की लब-बोसी 
करने लगी है मकई 
और खिड़की के पल्ले 
एक-दूसरे से 
गलबहियां करने लगे हैं;
कोचवान बैलगाडी को 
तेजी से हांकने लगा है और 
’चीनिया बादाम’ की रट पे 
झट से लगाम लगाता खोंमचे वाला 
अपने तराजू-बटखरे 
सम्हालने लगा है,
ये यकायक क्या होने लगा है?

हवा अपने बवंडरों में 
आवारा कागज़ों और टूटे पत्तों को 
दौड़ाने लगी है और 
तार के पेड़ पे अटकी 
एक पुरानी पतंग 
अब मस्तूल सी फ़हराने लगी है;
बांस की फ़ुनगी पे टंगा 
पिछली दिवाली का कण्डील 
हिण्डोले सा डोलने लगा है,
क्या सावन अपनी सरगर्मियों 
का पिटारा खोलने लगा है,
ये यकायक क्या होने लगा है?

-Pawan Kumar Srivastava

Monday, 2 July 2018

सब ख़त्म

35 साल पहले मेरे पिता ने जब घर में बताया था कि वे और मेरी नानी,मौसी,मामा सब मिलकर आसपास ज़मीन ले रहे हैं तो यह सुनकर मेरी बांछें खिल गई थी।खिलती भी क्यों न,आख़िर लगभग हमउम्र मौसेरे,ममेरे भाई-बहनों का सदा के लिए चुहलबाज़ियों भरा साथ जो मिलने वाला था,नानी की पुरसुकून गोद,उनकी हुंकारा मांगती दोने भर भर कर कहानियां जो मिलने वाली थी, माँ सरीखी मौसियों का दुलार जो मिलने वाला था।
फिर वो वक़्त आया जब हम सब के घरों की नींव रखी गई ।ईंट ,ईंट जोड़कर घर बना ।घर के बनने,सजने संवरने के दौरान हम भाई बहन अपनी बेतक़सीर शरारतों में मशगूल रहे ।कभी कुछ ज़्यादा शरारत हो गई और नौबत पिटने की आ गई तो मामा,मौसियों ने बचाया।पंचपैसिये टॉफी,कागज़ी घिरनी,छतनार पेड़ों की शाखों पर लदे कच्चे पके फलों में हमें ज़िन्दगी का आबे-जमजम मिलता रहा।ऐसा सुखद था सबकुछ कि कभी ज़न्नत का ख़्वाब तक न आया।पर फिर हम बड़े हो गए।हमारे बड़े होते हीं न जाने कौन से चोर दरवाज़े से राजनीति हम सबके घरों में घुस गई और हमारी ज़िंदगी से मासूमियत चुरा कर ले गई।
राजनीति ने अपना विषैला दंश क्या मारा,सबके ज़ेहन मे अना घर कर गई ....ख़ुद को बेहतर दिखाने का,एक दूसरे को पछाड़ने का ख़्याल आने लगा।तलाशे-रिज़्क़ में मैं भी मुम्बई आ गया।और फिर मेरे पीछे रफ़्ता-रफ़्ता सबकुछ ख़त्म होता गया-स्नेह की छाया बिखेरती परिवार की वटवृक्ष नानी,आपसी मोहब्बत,परस्पर विश्वास,पड़ोस में रहते अहबाबों के आँगनों की क़रीबी, सबकुछ।
अब वहाँ सिर्फ़ भावनाओं और पसीने के गारे से बने घर को जोहते बूढ़े माँ-बाप हैं ।जिसदिन वो चले गए,उस इलाके से मेरा राबिता हमेंशा हमेंशा के लिए टूट जाएगा।तब सचमुच सबकुछ ख़त्म हो जाएगा।
**************
©®Pawan Kumar Srivastava/written on 19th June 2018.
चित्र साभार-गूगल
किस्सा सुनाने वाली
अपनी बुढ़िया नानी ख़त्म।
परियां, सरियां पैदा करती
तिलस्मी बच्चेदानी ख़त्म।

बड़े हो गए भाई,बहना
बच्चों की नादानी ख़त्म।
ऊग गई दीवारें आँगन में,
मिल्लत की बगवानी ख़त्म।

वो गाँव के मेले बाजे-गाजे,
बिन पैसे की फुटानी ख़त्म
खो गई रौनक बाज़ारों की,
बहलावे की दुकानी ख़त्म।

प्रीत बिसरी,
तल्ख़ी पसरी,
मौसी,मामा,मामी संग
रिश्तों की रवानी ख़त्म।

बोझ अपनों की परेशानी का,
फ़िक्र की छीनाछानी ख़त्म।
रोते थे जब हम सच्चे आंसू,
मरहूमों की वो उठवानी ख़त्म।

वो हाट,बाट, गैल,गामा,
नुक्कर की खाक़छानी ख़त्म।
खो गए सब यार-अहबाब,
गांव की मेहमानी ख़त्म।

सुख गए सब कुएं वहाँ के,
वो लज्ज़त वाला पानी ख़त्म।
था वहाँ का मौसम बसंती,
अब वो फ़िज़ा धानी ख़त्म।

तंगदिली में ईदी ख़त्म,
वो रस्में फगुआनी ख़त्म,
पड़ोस के ज़ुम्मन चाचा की
सेवइयां और बिरयानी ख़त्म।

लिये डाकिया फिरता था जो
नामा वो रूमानी ख़त्म।
सारा मुहल्ला घर था अपना,
फ़ितरत वो ईमानी ख़त्म।

हुए परदेशी,बिका मकाँ,
देश का दाना-पानी ख़त्म।
पुश्तैनी रिहाईश का वो
किस्सा जावेदानी ख़त्म।

-पवन कुमार।
चित्र साभार-गूगल