दोस्तों शादाब दुशाला ओढ़े और दिल आफज़ाई फुहारों का वायदा लिए मानसून हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ़ इलाकों में दस्तक दे चूका है | बारिश से पहले का दिलकुशा मंज़र ,इसी ख्याल को पिरोया है मैंने अपनी इस कविता में | इस कविता की लज़्ज़त से लुफ़्तअंदोज़ होईये और कीजिये ख़ैरमकदम इस मनभावन मानसून का :
ये यकायक क्या होने लगा है?
धरती की धमनियां
धड़कने लगी हैं
और आसमां स्याह होने लगा है;
बिजली की आती-जाती चौंध,
जैसे आसमां के स्याह स्लेटों पे
खुदा सुनहरे हर्फ़ों से कुछ
लिखने-मिटाने लगा है....
सुग्गे का झुण्ड
बेतहाशा उड़ा जा रहा है
पूरब की ओर
और नीम के सघन शाखों में
एक कौव्वा दुबकने लगा है,
ये यकायक क्या होने लगा है?
झुक कर माटी की लब-बोसी
करने लगी है मकई
और खिड़की के पल्ले
एक-दूसरे से
गलबहियां करने लगे हैं;
कोचवान बैलगाडी को
तेजी से हांकने लगा है और
’चीनिया बादाम’ की रट पे
झट से लगाम लगाता खोंमचे वाला
अपने तराजू-बटखरे
सम्हालने लगा है,
ये यकायक क्या होने लगा है?
हवा अपने बवंडरों में
आवारा कागज़ों और टूटे पत्तों को
दौड़ाने लगी है और
तार के पेड़ पे अटकी
एक पुरानी पतंग
अब मस्तूल सी फ़हराने लगी है;
बांस की फ़ुनगी पे टंगा
पिछली दिवाली का कण्डील
हिण्डोले सा डोलने लगा है,
क्या सावन अपनी सरगर्मियों
का पिटारा खोलने लगा है,
ये यकायक क्या होने लगा है?
-Pawan Kumar Srivastava

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