35 साल पहले मेरे पिता ने जब घर में बताया था कि वे और मेरी नानी,मौसी,मामा सब मिलकर आसपास ज़मीन ले रहे हैं तो यह सुनकर मेरी बांछें खिल गई थी।खिलती भी क्यों न,आख़िर लगभग हमउम्र मौसेरे,ममेरे भाई-बहनों का सदा के लिए चुहलबाज़ियों भरा साथ जो मिलने वाला था,नानी की पुरसुकून गोद,उनकी हुंकारा मांगती दोने भर भर कर कहानियां जो मिलने वाली थी, माँ सरीखी मौसियों का दुलार जो मिलने वाला था।
फिर वो वक़्त आया जब हम सब के घरों की नींव रखी गई ।ईंट ,ईंट जोड़कर घर बना ।घर के बनने,सजने संवरने के दौरान हम भाई बहन अपनी बेतक़सीर शरारतों में मशगूल रहे ।कभी कुछ ज़्यादा शरारत हो गई और नौबत पिटने की आ गई तो मामा,मौसियों ने बचाया।पंचपैसिये टॉफी,कागज़ी घिरनी,छतनार पेड़ों की शाखों पर लदे कच्चे पके फलों में हमें ज़िन्दगी का आबे-जमजम मिलता रहा।ऐसा सुखद था सबकुछ कि कभी ज़न्नत का ख़्वाब तक न आया।पर फिर हम बड़े हो गए।हमारे बड़े होते हीं न जाने कौन से चोर दरवाज़े से राजनीति हम सबके घरों में घुस गई और हमारी ज़िंदगी से मासूमियत चुरा कर ले गई।
राजनीति ने अपना विषैला दंश क्या मारा,सबके ज़ेहन मे अना घर कर गई ....ख़ुद को बेहतर दिखाने का,एक दूसरे को पछाड़ने का ख़्याल आने लगा।तलाशे-रिज़्क़ में मैं भी मुम्बई आ गया।और फिर मेरे पीछे रफ़्ता-रफ़्ता सबकुछ ख़त्म होता गया-स्नेह की छाया बिखेरती परिवार की वटवृक्ष नानी,आपसी मोहब्बत,परस्पर विश्वास,पड़ोस में रहते अहबाबों के आँगनों की क़रीबी, सबकुछ।
अब वहाँ सिर्फ़ भावनाओं और पसीने के गारे से बने घर को जोहते बूढ़े माँ-बाप हैं ।जिसदिन वो चले गए,उस इलाके से मेरा राबिता हमेंशा हमेंशा के लिए टूट जाएगा।तब सचमुच सबकुछ ख़त्म हो जाएगा।
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©®Pawan Kumar Srivastava/written on 19th June 2018.
चित्र साभार-गूगल
किस्सा सुनाने वाली
अपनी बुढ़िया नानी ख़त्म।
परियां, सरियां पैदा करती
तिलस्मी बच्चेदानी ख़त्म।
बड़े हो गए भाई,बहना
बच्चों की नादानी ख़त्म।
ऊग गई दीवारें आँगन में,
मिल्लत की बगवानी ख़त्म।
वो गाँव के मेले बाजे-गाजे,
बिन पैसे की फुटानी ख़त्म
खो गई रौनक बाज़ारों की,
बहलावे की दुकानी ख़त्म।
प्रीत बिसरी,
तल्ख़ी पसरी,
मौसी,मामा,मामी संग
रिश्तों की रवानी ख़त्म।
बोझ अपनों की परेशानी का,
फ़िक्र की छीनाछानी ख़त्म।
रोते थे जब हम सच्चे आंसू,
मरहूमों की वो उठवानी ख़त्म।
वो हाट,बाट, गैल,गामा,
नुक्कर की खाक़छानी ख़त्म।
खो गए सब यार-अहबाब,
गांव की मेहमानी ख़त्म।
सुख गए सब कुएं वहाँ के,
वो लज्ज़त वाला पानी ख़त्म।
था वहाँ का मौसम बसंती,
अब वो फ़िज़ा धानी ख़त्म।
तंगदिली में ईदी ख़त्म,
वो रस्में फगुआनी ख़त्म,
पड़ोस के ज़ुम्मन चाचा की
सेवइयां और बिरयानी ख़त्म।
लिये डाकिया फिरता था जो
नामा वो रूमानी ख़त्म।
सारा मुहल्ला घर था अपना,
फ़ितरत वो ईमानी ख़त्म।
हुए परदेशी,बिका मकाँ,
देश का दाना-पानी ख़त्म।
पुश्तैनी रिहाईश का वो
किस्सा जावेदानी ख़त्म।
-पवन कुमार।
चित्र साभार-गूगल


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